महासत्वशाली स्थूलभद्र ने राज सभा में प्रवेश किया और जोर से राजा को धर्मलाभ की आशीष प्रदान की।
मंत्री मुद्रा को स्वीकार करने के प्रसंग पर अचानक धर्मलाभ के शब्दो को सुनकर राजा भी चोंक उठा।’ अरे यह क्या! यह कोन ? स्थूलभद्र! क्या स्थूलभद्र ने साधुवेष स्वीकार कर लिया?’
राजा ने पूछा, क्या सोच लिया?
‘हाँ राजन्! मेने सोच लिया। सोच विचार कर ही मैंने इस साधु वेष का स्वीकार किया है। अब न मुझे मंत्री मुद्रा की आवश्यकता है और न ही कोशा वेश्या की। अब तो मैने संयम धर्म से प्रीति जोड़ ली है………मेने अपना सर्वस्व संयम धर्म को सौंप दिया है। अब वो ही मेरा मार्ग है- वो ही मेरा जीवन है…….. वो ही मेरी साधना है ‘
राजा के आश्चर्य का पार न रहा।
वह सोच में पड़ गया, ‘अहो! 12-12 वर्षों से वेश्या के संग में आसक्त पुरुष क्या एक ही क्षण में ही उन समस्त भोग सुखों को तिलांजलि दे सकता है? जगत् में इससे बढ़कर और क्या आश्चर्य हो सकता है?
बस, अगारी मिटकर अणगार बने स्थूलभद्र मुनि ने वन की और अपनी यात्रा प्रारंभ कर दी।
राजा ने सोचा, ‘यह दीक्षा का बहाना करके वापस कोशा वेश्या के भवन की और तो नही जा रहा है न ? ‘-इस प्रकार का विचार कर राजा राजमहल के झरोखे में से देखने लगा ……… परन्तु वेश्या के महल की सर्वथा उपेक्षा कर ईर्यासमिति के पालन पूर्वक जंगल की और आगे बढ़ते हुए स्थूलभद्र को देख राजा ने आश्चर्य से अपना मस्तक झुका दिया।
इधर संभूतिविजय मुनि के पास जाकर स्थूलभद्र ने विधि पूर्वक भागवती दीक्षा अंगीकार की। वे भोगी मिटकर योगी बन गए।
स्थूलभद्र की दीक्षा के बाद राजा ने श्रीयक को मंत्री मुद्रा ग्रहण करने के लिए आग्रह किया। आखिर राजा के आग्रह को जानकर श्रीयक ने मंत्री मुद्रा स्वीकार की। श्रीयक न्याय व नीतिपूर्वक राज्य के कार्यभार को वहन करने लगा ।
स्थूलभद्र की दीक्षा की बात जब कोशा वेश्या को पता चली , तब उसके पश्चात्ताप का पार न रहा। उसकी आंखों में आंसु बहने लगे । स्थूलभद्र के सिवाय उसका चित्त कही नही लगता था। उसका वियोग उसके लिए असह्य हो गया।
संभूति विजय आचार्य भगवंत के चरणों में पूर्ण समर्पित बने स्थूलभद्र मुनि रत्नत्रयी की आराधना साधना में एकदम तल्लीन बन गए। उनके तत्कालीन जीवन को देखकर कोई कल्पना भी नही कर सकता था कि ये स्थूलभद्र भुतकाल में 12-12 वर्ष तक वेश्या के संग में रहे होंगे।