आर्यरक्षित के मन में मां के प्रति अद्भुत समर्पण और सम्मान था।
उनकी हर नजर मां को शोध रही थी………. परंतु उनकी दर्शन-पिपासा किसी भी तरह शांत नहीं हो पा रही थी।
बाह्य चक्षुओं से आर्यरक्षित सभी के अभिवादन को स्वीकार कर रहे थे……. परंतु उनके अभ्यंतर नेत्र तो मां के दर्शन के लिए तड़प रहे थे।
स्वागत यात्रा राजमार्गों से गुजर रही थी…….. धीरे-धीरे आगे बढ़ता हुआ वह जुलूस राजमहल की ओर मुडा। राजमहल के पास ही विशाल सभामंडल तैयार था। राजभवन में शोभायात्रा की समाप्ति हुई और वह स्वागत यात्रा राजसभा के रूप में बदल गई।
उदायन महाराज अपने सिंहासन पर आरूढ़ हुए। तालियों की गड़गड़ाहट से सभा मंडप गूंज उठा।
महामंत्री ने सभा का संचालन प्रारंभ किया।
पंडितवर्य आर्यरक्षित ने योग्य आसन ग्रहण किया।
प्रजाजन भी अपने अपने स्थान पर बैठ गए।
सर्वप्रथम खड़े होकर महामंत्री ने हाथ जोड़कर महाराजा को प्रणाम किया। तत्पश्चात परमात्मा की जय बुलवाकर सभा को शांत कीया। फिर वह बोले प्रिय प्रजाजनों आज आपके दिल में आनंद और उल्लास देखकर मेरा मन मयूर नाच उठा है। आप सबको ज्ञात है कि विप्रवर सोमदेव पुरोहित के ज्येष्ठ पुत्र आर्यरक्षित चोदह विद्याओ में पारगामी बनकर अपने नगर में पधारे हैं। आज हमने आर्यरक्षित का भव्य स्वागत किया। निकट भविष्य में ही आर्यरक्षित हमारी राजसभा के एक विशिष्ट अंग बनेंगे…….और उनकी बुद्धि, प्रतिभा से समस्त प्रजा लाभान्वित बनेगी।…….. इसके पश्चात महामंत्री ने आर्यरक्षित का विशेष परिचय दिया।
महामंत्री के बाद स्वयं महाराजा ने खड़े होकर आर्यरक्षित को पुष्पहार पहनाकर उनका हार्दिक स्वागत और अभिनंदन किया और कहा-आज से हमारी सभा को एक अनमोल रत्न की प्राप्ति हुई है, जिससे हमारी राज सभा की शोभा में चार चांद लगेंगे।