मुनि के स्वर्ग-गमन के बाद उनके मृत देह को पठारने की क्रिया के लिए अनेक गीतार्थ मुनि तैयार हो गए तभी कल्पित कोप करते हुए सूरिवर बोले, ‘क्या सभी पुण्य के कार्य तुम ही करोगे? क्या मेरे स्वजन में से किसी को करने नहीं दोगे?
आर्यरक्षित की यह बात सुनकर पिता मुनि बोले, यदि इस कार्य में महान पुण्य हो तो मैं यह कार्य करूंगा।
आर्यरक्षित ने कहा, मृत देह को वहन करते समय अनेक उपसर्ग भी हो सकते हैं और यदि आप उपसर्ग से चलित हो जाओ तो हम पर भयंकर आपत्ती आ सकती है…….अतः जो उचित लगे वैसा करो।
यह सुनकर सोमदेव मुनि ने कहा, ‘क्या मैं इतना स्त्वहीन और निर्बल हूं? मैं इस कार्य को अवश्य करूंगा। पहले भी मैंने वेदमंत्रों के द्वारा राजा और राष्ट्र की आपत्ति दूर की है……अतः इस कार्य में मुझे कोई घबराहट नहीं है। इस प्रकार दृढ़ बनकर सोमदेव मुनि स्वयं उस मृत देह को उठा कर जंगल की तरफ चल पड़े, तभी पूर्वशिक्षित बच्चों ने उनकी धोती खींच ली। बच्चों के इस उपसर्ग से वे मन में अत्यंत दुखी हुए, ‘यदि इस शव को नीचे रख दिया तो मेरा पुत्र पर आपत्ति आ जाएगी ‘इस भय से उन्होंने शव को नीचे नही उतारा और जंगल में जाकर मृत देह की अंतिम क्रिया कर दी। लौटने पर आर्यरक्षित ने उन्हें वस्त्र दिया और उन्होंने उसे शीघ्र ही चोलपट्टे की तरह पहन लिया।
सोमदेव मुनि का जीवन हर तरह से बदल चुका था। उनकी प्रत्येक आचार क्रिया साधु समान ही थी….. परंतु उन्हें गोचरी के लिए जाने में शर्म आती थी। अनेक प्रयत्न करने पर भी वे भिक्षा- गमन के लिए तैयार नहीं हुए।
आर्यरक्षित ने सोचा, कदाचित् मेरा आयुष्य पहले क्षीण हो जाये तो इन्हें वृद्धावस्था में तकलीफ पड़ सकती है, अतः इन्हें किसी भी प्रकार से भीक्षा विधि सिखानी चाहिए।
एक बार अपने शिष्यों को इकठ्ठा कर आर्यरक्षित ने कहा- मैं विहार करके पास के गाँव में जाऊंगा…..तुम लोग यही ठहरना ……. रोज भिक्षा लाना, किन्तु सोमदेव मुनी को भोजन के लिए आमंत्रण मत देना।