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आर्यरक्षित सूरिजी – भाग 19

विनीत शिष्य की योग्यता जानकर एक दिन तोसली पुत्र आचार्य भगवंत ने ज्ञान पिपासु मुनिवर आर्य रक्षित को बुलाकर कहा, वत्स अवशिष्ट के पूवो के अभ्यास के लिए तुझे उज्जयिनी नगरी में युगप्रधान वज्रस्वामी के पास जाना होगा।

“गुरुदेव! तब तो मुझे आप का विरह हो जाएगा?”

“वत्स! जिसके दिल में गुरु के प्रति समर्पण रहा हो, उसे गुरु का विरह कभी नहीं होता है। शास्त्र अध्ययन से तू जानता ही है कि गुरु की आज्ञा से सैकड़ों मील दूर गया शिष्य गुरु के समीप ही है……. और गुरु की आज्ञा का उल्लंघन कर गुरु के निकट रहा शिष्य गुरु से दूर ही है।”

“वत्स! तेरे मन में जो गुरु भक्ति का आदर्श जीवन्त है…… उससे मुझे पूर्ण संतोष है। युग प्रधान आचार्य श्री वज्रास्वामी जी दशपूर्वधर महर्षि है, वे श्रुतज्ञान के महासागर है…… और अब वृद्धावस्था को भी प्राप्त हुए हैं।”

“वत्स! तुम्हारी अंतरंग योग्यता को देखकर मेरे दिल में भी विचार आया है कि यदि तुम वज्रस्वामी जी के पास जाकर अभ्यास ग्रहण करोगे तो स्व-पर उपकार द्वारा जिनशासन के महान प्रभावक बन सकोगे।”

“अपने पूज्य गुरुदेव के मुखकमल से बहती हुई इस अमृतवाणी और आशीवृष्टि को सुनकर आर्यरक्षित का मन भर आया और उनकी आंखों में हर्षाश्रु उभर पड़े।”

“आर्यरक्षित ने कहा, भगवंत! आप करुणावत्सल हो! आपकी आज्ञा मुझे शिरोधार्य है। आपका आशीर्वाद ही मेरा संबल है। प्रभु! आपकी कृपा निरंतर बरसती रहे, यही प्रार्थना है।”

“वत्स! तेरी भव्य भावना से मैं प्रसन्न हूं….. अब शीघ्र ही विहार की तैयारी करनी होगी।”

“भगवंत! आप शुभ दिन फरमाए।”

“रक्षित! शुक्ला पंचमी का दिन उत्तम है, उस दिन सिद्धियोग भी है। दिन के प्रथम प्रहर में विहार यात्रा आरंभ करना। अन्य मुनिवर भी तुम्हारे साथ आएंगे।”

“भगवंत! जैसी आपकी आज्ञा।”

जिनशासन एक लोकोत्तर शासन है। जीव आत्मा का आत्मा हित कैसे हो? इसका सरल व सचोट उपाय जैन शासन में निहित है।

जैनशासन में गुरुतत्व का भी अपूर्व स्थान है। गुरु-शिष्य की जो आचार व विनय मर्यादा जैनशासन में देखने को मिलती है, उसकी प्राप्ति अन्यत्र संभव है।

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