आर्यरक्षित स्वाध्याय की साधना में आकंठ डूब गए। स्वाध्याय के साथ-साथ संयम जीवन की प्रत्येक क्रिया भी वे उपयोग पूर्वक करने लगे।
योग्य गुरु को योग्य शिष्य की प्राप्ति हो चुकी थी। तोसली पुत्र आचार्य भगवंत भी अत्यंत प्रेम व वात्सल्यपूर्वक नूतन मुनिवर आर्यरक्षित को ज्ञानदान कर रहे थे। नूतन मुनिवर भी अत्यंत नम्र, विनीत और ज्ञान पिपासु होने के कारण गुरुदेव के ज्ञानदान को भक्तिपूर्वक ग्रहण कर रहे थे। शास्त्र के अध्ययन द्वारा आर्यरक्षित मुनिवर शास्त्र के ज्ञाता बने।
शास्त्रज्ञ बनने के कारण स्व-पर हिताहित के ज्ञाता बने।
उनकी हर प्रवृति में नम्रता के दर्शन होने लगे।
शास्त्र तथा गुरु आज्ञानुसार वे जीवन जीने लगे। गुरुदेव तोसली पुत्र आचार्य भगवंत ने अपना ज्ञान खजाना आर्यरक्षित के सामने खाली कर दिया था……. और आर्यरक्षित ने उस गुरु-प्रदत्त भेंट को अच्छी तरह से ग्रहण किया था।
आर्यरक्षित की ज्ञान पिपासा अपूर्व थी……….यदि उसे युग प्रधान शासन प्रभावक वज्रस्वामीजी के पास विशेष अध्ययन के लिए भेजा जाए तो आर्यरक्षित को विशेष लाभ हो सकता है और आर्यरक्षित जिनशासन का महान प्रभावक बन सकता है। ऐसा आचार्य भगवंत सोचने लगे।
निर्यमणा
धन्य है वे शिष्य, जो गुरूदेव के हृदय में बसे हैं और धन्य है वे शिष्य, जिनके ह्रदय में गुरु का वास है।
आर्यरक्षित मुनिवर ने अपने जीवनचरित्र द्वारा शास्त्र की इस उक्ति को जीवन में चरितार्थ किया था।
उनके जीवन में ऐसा अपूर्व समर्पण था कि वे गुरू के ह्रदय में बस गए थे।
उनके हृदय में प्रगाढ गुरुभक्ति थी, जिसके फलस्वरुप उनके हृदय में सतत गुरु का वास था।
जिस शिष्य के ह्रदय में गुरु का वास है, उस शिष्य को गुरु का विरह कभी नहीं होता है।
भौतिक देह से कदाचित वह विनीत शिष्य गुरु-चरण से सैकड़ों मील दूर हो सकता है, परंतु उसके मन मंदिर में गुरु का विरह कभी नहीं होता है।