आचार्य भगवंत श्रमणोंपासीका रुद्रसोमा के जीवन से सुपरिचित थे……. रुद्रसोमा आचार्य भगवंत कि सांसारिक भगिनी थी। रुद्रसोमा के दिल में शासन उन्नति व रक्षा की जो प्रबल भावना थी……. उसे आचार्य भगवंत अच्छी तरह जानते थे।
संसार में पुत्र मोह का एक जबरदस्त बंधन है। इस कठोर बंधन को तोड़ना कोई सामान्य बात नहीं है….. उसके लिए वज्र सा ह्रदय चाहिए। माँ रुद्रासोमा ने पुत्र व्यामोह का वस्त्र उतार दिया था……… जगत के स्वरूप को वह अच्छी तरह से जानती थी।
आचार्य भगवंत में आर्यरक्षित मैं भावी प्रभावक के दर्शन किए…….. और वे अत्यंत सुमधुर स्वर से बोले- महानुभाव! तुम्हारी भावना उत्तम है….. परंतु जैन दीक्षा के बिना दृष्टिवाद का अध्ययन नहीं हो सकता है…….. यह जैन शासन की विधि मर्यादा है।
प्रभो! मर्यादा का पालन अवश्य ही होना चाहिए। इस कार्य के लिए जो भी मर्यादा हो…… उसका पालन अवश्य होना चाहिए, क्योकी विधि के पालन का सर्वत्र सुंदर परिणाम होता है।
प्रभो! आप जो भी आज्ञा करेंगे……… उस आज्ञा के पालन के लिए मैं कटिबद्ध हूं, अतः उस कार्य के लिए आपको जो उचित लगे, मुझे आज्ञा करें। आप मुझे जैन विधि से प्रवज्या प्रदान करने का अनुग्रह करें।
प्रभु मेरी एक प्रार्थना है- मिथ्या मोह के कारण इस नगर की प्रजा मुझ पर अत्यंत राग करती है। संभव है राजा भी मेरी दीक्षा छुड़वा दे…….. अबुध जनों का ममत्व अत्यंत ही दृढ़ होता है………उसका त्याग करना अत्यंत ही कठिन कार्य है, अतः दीक्षा देने के बाद कृपया यहां से विहार कर दें….. तो अच्छा रहेगा, जिससे जैन शासन की लघुता न हो।
आर्यरक्षित की उस भावना को जानकार तोसलिपुत्र आचार्य भगवंत अत्यंत ही प्रसन्न हुए। सोचने लगे, इसमें कितनी दीर्घदर्शिता है? शासन की हिलना/निंदा से बचने/बचाने के लिए यह कितना सावधान है?