‘लो , अपन क्षीरोदधि पर आ गये । सचमुच , पानी दूध जैसा ही है ।’
‘अब जो द्विप आयेगा …. उसका नाम घुतवर द्विप।’
‘और इसके बाद आयेगा, घुतवर समुद्र । द्विप का जो नाम , उसी नाम का समुद्र
।’
विमान तीव्र गति से उड़ रहा था । लाखों योजन के द्विप-समुद्रो को बात ही
बात में उलांघ रहा था । घुतवर द्विप व घुतवर समुद्र पर से गुजर कर अब विमान
ईक्षुवर समुद्र है ।’ रत्नजटी ने कहा ।
‘सर्वज्ञ वीतराग भगवंत यह सब अपने पूर्णज्ञान की दृष्टि से देखते रहते है
। कितना यथार्थ ज्ञान । कितना वास्तविक दर्शन ।’
‘अब आयेगा नन्दीश्वर द्विप । देवों व विघाधरों का शाशवत तीर्थ। ‘ रत्नजटी
के स्वर में भक्ति का पुट था ।
‘हं अं… वे दूर दूर जो उतुंग पर्वत दिखायी दे रहे हैं वे शायद नन्दीश्वर
द्विप के ही पहाड़ होंगे ।’
‘बस… अब अपन पहुंचने में ही है ।’
‘मेरा तो जीवन धन्य हो गया । मैं तुम्हारा यह उपकार इस जन्म में तो क्या
जन्म जन्म तक नहीं भुला पाऊंगी।’
‘ऐसा मत बोल । ‘इसमें उपकार क्या बहन । यह तो मेरे जैसे भाई का फर्ज है।
तेरे जैसी बहन के लिये तो सब कुछ करने के लिये मन लालायित है ।’
सुरसुन्दरी .. हर्ष भरे पुरे नयनों से रत्नजटी की ओर तकती रही ।
‘नन्दीश्वर द्विप आ गया । मैं विमान को नीचे उतार रहा हूं।’ रत्नजटी ने
विमान को धीरे से नीचे उतारा। एक स्वच्छ भूमि पर विमान को सिथर किया ।
रत्नजटी व सुरसुन्दरी – दोनों विमान में से नीचे उतरे । रत्नजटी ने
सुरसुन्दरी से पूछा :
‘बहन , तेरी क्या इच्छा है ? पहले जिनमंदिरों की यात्रा करना है या फिर
पहले गुरुदेव मनिशंख मुनिवर के दर्शन करने चलना है ?’
‘पहले शाश्वत जिनमंदिरों के दर्शन करे … शाश्वत जिंप्रतिमाओं की वंदना
करें … और ततपश्चात गुरुदेव के चरणों में चलें । ठीक है न भाई ?’
‘जैसी तेरी इच्छा ।
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