‘क्या बोल रहा है बेटा तू’! यह सारी संपत्ति… यह सारा वैभव तेरा ही तो है। तुझे तेरी ज़िंदगी मे कमाने की जरूरत ही क्या है! जो कुछ है उसे ही सम्भालना जरूरी है। ‘पिताजी, जो भी है ….. यह सब आपका उपाजित किया हुआ है। उत्तम पुत्र तो आपकी कमाई पर नही जीते… में आपका पुत्र हूँ…. आप मुझे उत्तम नही देखना चाहते क्या ? ‘तू’ गुणों से उत्तम ही है बेटा ! तू ज्ञान और बुद्धि से भी कितना उत्तम है अमर !’ अब मुझे मेरे पराक्रम से उत्तम बनने का मौका दे। पिताजी, मेने तो अपने मन से तय कर लिया है विदेशो में व्यापार के लिये जाने का । सेठ की आंखे डबडबा गयी। अमर ने अपनी निगाहें जमीन पर टिका दी। सेठ भराई आवाज में बोले बेटे तेरे बिना में जी नही सकता। तेरा विरह में नही सहन कर पाऊंगा ! तुझे ज्यादा क्या कहूं ? ‘में समझता हूं ….पिताजी। आपका मेरे पर अपार स्नेह है। मैंने बहुत सोचा…. आखिर… आपके चरण में गिरकर आपको जैसे-तैसे मनाकर जाने का निर्णय किया है। आपके दिल को भारी दुःख होगा…. पर आप मेरे इस अपराध को क्षमा करदे ।धनावह सेठ सोच में डूब गये। पुत्र बिना ये हवेली कितनी सुनसान हो जायेगी, इसकी कल्पना भी उन्हें सिहरन से भर दे रही है !’अमर’तू वापस सोच….. बेटे!
‘आप इजाजत नही देगें तो नही जाऊँगा, पर अब मुझे इस हवेली में रहना अच्छा नही लगेगा। मुझे खाना पीना नही भायेगा,मेरा दिल भारी भारी रहेगा! सेठ को लगा. ..अमर का विदेश यात्रा का निर्णय पक्का है,तब उन्होंने दूसरी बात कही: यदि तू तेरी माँ की अनुमति ले लेगा तो में तुझे इज़ाज़त दे दूँगा….बस,! मै मेरी मां की गोद मे सर रखकर उसे मना लूँगा, पिताजी ! वह ।मुझे दुःखी नही करेंगी। हाँ मुझे उसे दुःखी करनी ही पड़ेगी, पर कुछ बरसो का ही तो सवाल है…. एक दो साल में तो वापस लौट आऊँगा ! ‘एक…दो साल … बेटे पर मेरी पुत्रवधू मान जाएगी ? उसने तो मेरे साथ आने की ज़िद कर रखी है….मेरी माँ उसे मना ले तर वह यहाँ रुक जाये तो अच्छा ! सेठ अमर की आँखों को खुली किताब की तरह पढ़ रहे थे।….