विमलयश का तो नित्य क्रम हो गया था वीणावादन जैसे उसकी आदत बन चुकी थी मध्य
रात्रि का मादक समय ही उनके पसंद किया था ।संगीत के माध्यम से वो परम आनंद की
अनुभूति करता था। उसे मालूम नही था कि न जाने ऐसी कितनी राते उसे अकेले
गुजारनी होगी बेनातट नगर में। एकांत व्यतीत न कर- दे इसके लिये उसने विणावादन
का सहारा ले लिया।
महाराज गुणपाल के कानों में भी वीना के मधुर सुर टकरा गए एक रात में -और दूसरे
ही दिन सबेरे महाराज ने प्रसन्न मन से विमलयश को कहा :
विमलयश,तू तो सचमुच अद्भुत वीणावाद करता है ।
गुरुजनो की कृपा का फल है, राजन !
विमलयश ले विनय ने राजा को विवश बना दिया था। विमलयश में अहंकार नही था।
अहंकार को जला कर अरिहंत की साधना में एकाग्र बना हुवा वो महान साधक था। राजा
ने भी उतनी मिठास से कहा:
विमलयश, मेरा मन तेरा वीणावादन सुनने का इच्छुक है। यदि तो सुनाएगा तो हार्दिक
आशीर्वाद मिलेंगे ।
जरूर …..जरूर …..महाराज!’
राजकुमारी गुणमंजरी अपने पिता के पीछे आकर खड़ी रह गई थी। रात को जिसकी स्वर
माधुरी सुनकर …..रम्य स्वप्नप्रदेश में जा पहुंची थी , उस सुरस्वामी को वह
साक्षात् निहार रही थी। टकटकी बांधे देख रही थी। उसका अद्भुत रूप देखकर उसे
लगा कि उसकी कल्पना के रंग तो बिल्कुल ही फीके है इस सौंदर्यराशि के समक्ष तो
! कलाकार की जीवंत आकृति उसे ज्यादा मोहक लगी। उसका हिलना डुलना -उसकी बोली और
अनन्त परीखोज में ढलती हुई उसकी आंखो में उसे अपूर्व तेज उभरता दिखाई दिया।
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