धनवती ने आश्चर्य से पुछा- ‘क्यों बेटी, साध्वीजी के लिये क्यों पूछ रही है ?’
‘मुझे उनके पास धर्म का बोध प्राप्त करने जाना है।’ – सुरसुन्दरी ने कहा
‘साध्वीजी के पास धर्म का ज्ञान प्राप्त करना है ?’ धनवती के लिये यह दूसरा आश्चर्य था।
‘पर बेटी … तूने चौसठ कलाओं में निपूर्गत प्राप्त की है…. और फिर तू तो राजकुमारी है…. तुझे साध्वीजी के पास क्यों ?’…
‘मां, शायद इसे दीक्षा-विक्षा लेने का इरादा जगा होगा?’ अमरकुमार बोला, और तीनों हंस पड़े।
‘दीक्षा लेने का भाव जग जाय तो मैं अपना परम सौभाग्य मानू। संसार के प्रति वैराग्य आना कोई सरल बात थोड़े ही है?’ सुरसन्दरी गंभीर होकर बोली।
‘साध्वीजी के पास जाने से और धर्मबोध पाने से दुर्लभ वैराग्य भी सुलभ हो जाएगा।’ अमरकुमार के शब्दों में अभी भी हंसी का लहजा था।
‘यदि सुलभ हो गया…. तब तो संसार का त्याग करने में विलम्ब नहीं करूंगी… इस मानव जीवन की सफलता उसी में तो है ।’
‘तो फिर इतनी ढेर सारी कलाएँ क्यों सीखी? पहले ही से साध्वीजी के पास शिक्षाए लिया होता हो ठीक रहता न, अभी तो….’
‘मैं साध्वी होती , यही कहना है न ? पर कुछ नहीं ….. जब से जागे तभी से भोर ….अभी तो धर्म का और अअध्यात्म का ज्ञान पाना है ….। मेरे पिताजी और मां की यह इच्छा है और यह बात मुझे भी पसंद है ।
आगे अगली पोस्ट मे….