माता रतिसुन्दरी राजा से कहती है- ‘ आप जो कहते है, वह बिल्कुल यथाथ है…. मुझे बहुत अच्छी लगी आपकी बातें। अपनी पुत्री का परलौकिक हित अपने को सोचना ही चाहिए। केवल वर्तमानकालीन जीवन के सुख के विचार नहीं किये जा सकते। आपकी बात सही है।’
‘तुम्हें पसंद आयी मेरी बात…. पर सुन्दरी को भी तो जँचनी चाहिए….आखिर पढ़ना तो इसे है न, क्यों बेटी?’ राजा ने हँसते-हँसते सुन्दरी के सिर पर हाथ रखा।
‘पिताजी , आप मेरे सुख के लिये, मेरे हित के लिये, कितना कुछ करते है? आपके उपकारों का बदला तो मैं इस भव में चुकाने से रही। आप और मेरी यह मां-दोनों जैसे मेरे सुख के लिये ही जीते हों। मुझ पर दुःख का साया तक न गिरे इसके लिये कितनी चिन्ता करते है? पिताजी, मै जरूर साध्वीजी के पास धर्मबोध प्राप्त करुँगी। मैं तलाश करवाती हूं कि नगर में ऐसे कोई साध्वीजी हैं या नहीं?’
‘बेटी, तू अमरकुमार से ही पूछ लेना न । उसकी माँ धनवती को तो मालूम होगी ही। यदि गाँव में साधु या साध्वीजी होते हैं तो वो उन्हें वंदन किये बगैर पानी भी नहीं पीती।’ मां के मुहँ से अमरकुमार का नाम सुनकर सुरसुन्दरी पुलकित हो उठी।।
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