सुरसुन्दरी ने योवन की देहरी पर कदम रखे तब तक उसने तरह-तरह की कलाएं हासिल कर ली थी। उसके कलाचार्य ने आकर राजा रिपुमदन से निवेदन किया :
‘महाराज, राजकुमारी ने स्त्रयों की चौसठ कलाएं प्राप्त कर ली। मेरे पास जितना ज्ञान था , जितनी सुथ थी, मैंने सब सुरसुन्दरी को दे दिया है । मेरा कार्य अब समाप्त हुआ है।’
‘तुम्हारी बात सुनकर मुझे काफी संतोष हुआ है पंडितजी । एक दिन राजसभा में मै राजकुमारी के ज्ञान और बुद्धि की परीक्षा लूंगा । पर एक बात तो बताईये पंडितजी , आपकी पाठशाला में अन्य भी कोई छात्र-छात्राऐ है ऐसे जिसने राजकुमारी के जितना या उससे भी ज्यादा ज्ञान प्राप्त किया हो , उसकी बुद्धि काफी कुशाल हो ।’
‘हां महाराज, मेरी पाठशाला का क्षेष्ठ विद्यार्थी-छात्र है धनावह सेठ का इकलौता बेटा अमरकुमार । तकशास्त्र और व्याकरग् शास्त्र में वो पारंगत बना है। वैधशास्त्र में तो उसने धनवंतरि जितना ज्ञान प्राप्त किया है। घनुविधा में उसका सानी नही है कोई। अश्व परीक्षा और हाथी को निगृहित करने की कला भी उसने सिद्ध की है।
‘खूब…..खूब, पंडितजी । राजसभा में सुरसुन्दरी के साथ मैं अमरकुमार के ज्ञान और बुर्द्धि की भी कसौटी करूँगा।’
‘ जब आप हुक्म करेंगे तब आयोजन कर दिया जाएगा।’ राजा रिपुमदर्न ने कलाचार्य को उत्तम वस्त्र …. और अलंकार उपहार – स्वरूप देकर उनका उचित सत्कार किया। पंडित सुबुद्धि ने विदा ली।
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