सुरसुन्दरी को सुरसंगीत नागर में आये हुए छह महीने बीत गये । रत्नजटी के
परिवार के साथ उसके आत्मीय संबंध बंध थे ।
रत्नजटी के साथ , उसकी चारों रानियों के साथ उसने अनेक तीर्थो की यात्राएं
की थी । यात्राप्रवास में रत्नजटी के साथ तरह-तरह की धर्मचर्चा-तत्वचर्चा होती
रहती थी । रोजाना रत्नजटी को भोजन करवाते वक्त भी रत्नजटी के साथ अनेक प्रकार
के विषयों पर वार्तालाप होता था । रत्नजटी मुक्त मब से बातें करता था पर उसका
मन स्वच्छ था , सरल था । उसके हास्य में भी निरी निर्दोषता छलकती थी । उसकी
आँखों में से निश्छल स्नेह की सरिता बहती थी । उसका मन सदैव सुरसुन्दरी के
गुणों का मनन , चिंतन किया करता था । करीब एक वर्ष से पति का विरह सहन करती
हुई सुरसुन्दरी ने अपने शील का जतन बड़ी हिम्मत एवं पूरी निष्ठा से किया था ।
रत्नजटी कभी-कभी सुरसुन्दरी के जीवन में आये हुए दुःख की झंझा के विचारों में
गुमसुम हो जाता । सुरसुन्दरी के प्रति तीव्र सहानुभूति से उसका ह्दय भर आता ।
जब जब उसकी स्मृति में पिता मुनि के वचन याफ़ आते… उसका सर अहोभाव से
सुरसुरन्दरी के चरणों में झुक जाता ।
रत्नजटी युवान राजा था । परन्तु उसमें यौवन का उन्माद बिल्कुल नहीं था ।
वह प्राक्तमि था …. पर अविवेकी नहीं था । अपने महान पितृकुल की उज्वल कीर्ति
को जरा भी दाग न लग जाय इसके लिये वह पूरी सतर्कता रखते हुए जीता था ।
वचन-पालन का वह अत्यन्त आग्रही था । उसने सुरसुन्दरी को जो वचन दिया था , वह
उसकी स्मृति में बराबर सुरक्षित था । निर्बल एवं असिथर व्यक्ति का वचन पानी की
रेखा सा होता है… पराक्रमी एवं संस्कारी व्यक्ति का वचन पत्थर की रेखा सा
होता है । उसने सुरसुन्दरी को कहा था : “मैं तुझे वचन देता हूँ… तुझे मैं
मेरी बहन मानूंगा… तू याद रखना…मैं एक महान मुनि पिता का पुत्र हूं ।”
छह-छह महीनों से रत्नजटी अपने वचन का सुविशुद्ध रूप में पालन कर रहा था
। मन-वचन-काया से वह वचन निभा रहा था । उसके मन में सुरसुन्दरी के प्रति
वैचारिक विकार की रेखा भी नहीं जगी थी कभी । अलबत्ता , उसकी जीवनसंगिनी
चार-चार रानियां जो कि रूप-लावण्य एवं गुणों से भरी-भरी थी…उसके पास थी ।
परन्तु वैसे तो रावण के अन्त:पुर में कहा कम रानियां थी ? हजारों रानियां थी ,
फिर भी वह सीता के रूप में पागल बना था न ?
आगे अगली पोस्ट मे…