अर्धचन्द्र की छिटकती चांदनी ने हवेली के इर्दगिर्द के वृक्षपरणो पर फैल फैल कर नृत्य करना प्रारंभ किया था। अमरकुमार सुरसुन्दरी को हवेली के उस झरोखे में ले गया जहाँ से कि बरसती चांदनी का अमृतपान किया जा सके! जहाँ बैठकर उपवन में से आ रही गीली गीली मादक रेशमी हवा का स्पर्श पाया जा सके !
दोनों की उभरती-उछलती भावनाएं खामोशी की दीवार से टकरा रही थी: दोनो की नज़रे चन्द्र,व्रक्ष, और नगर के दीयो की ओर थी । अमर के होठों पर शब्दों की कालिया निकली,,,,
चोतरफ जैसे सुख ही सुख बिखरा हुआ है। है न ? सुखी व्यक्ति को चारो तरफ सुख ही सुख नज़र आता है ! ज्यो पूर्ण व्यक्ति को समूचा विश्व पूर्ण नजर आता है! ‘पर, सर्वत्र सुख है ,,,,, तब सुख नज़र आता है न सुखी को भी! ‘ नही,सुखी को दुःख दिखता नही है, इसलिए सर्वत्र उसे सुख दिखाई देता है।’दुःख देखना ही क्यों? दुःख देखने से ही मानव दुखी होता है।’ओरो के दुःख से दुःखी होने का सुख भी महसूसने लायक है। पर, अभी तो हम एक दूजे का सुख पा ले। ‘इसलिए तो शादी रचायी’ थी!’सुखो को प्राप्त करने के लिए?
सुखो को भोगने के लिए’ दुःखो को स्वीकार करने की तैयारी तो रखनी ही चाहिए। ‘क्यो?चूँकि, सुख के बाद दुःख आता ही है! ‘ आये तब देखा जायेगा।’ पहले से उसके स्वीकार की तैयारी कर रखी हो तो, जब दुःख आये तब दुःखी न हो जाये! ‘यह सब साध्वीजी से सीखा लगता है! ‘ जी हा, जिंदगी का तत्वज्ञान उन्होंने ही दिया है । तत्वज्ञान तो बहुत सुंदर है। ‘जीन-वचन है ना? जिनवचन यानि श्रेष्ठ तत्वज्ञान। ‘जीवन को अमृतमय बनानेवाला तत्वज्ञान! रात का प्रथम प्रहर समाप्त हुआ जा रहा था। हवा में और ज्यादा नमी छाने लगी…झरोखे मे से उठकर दम्पति ने शयनखंड में प्रवेश किया…..
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