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जीवन जैसे कल्पवृक्ष – भाग 2

दो दिलों में प्यार का ज्वार उफन रहा था । मन की तरंगों के आगे दरिये की लहरें क्या माईना रखती है ? फिर भी यह तूफानी दरिये की तरंगें नही थी,,,, उफनता सागर भी अंकुश में था । उसे देश और काल का ख्याल था। सुरसुन्दरी ने कहा : ‘देखो,,,,पूरब में सूरज कितना उपर निकल आया है,,,, मुझे लगता है ,,,,दो घड़ी हो चुकी होगी सूरज को ऊगे हुए, चलो अब मैं मां के पास पहुँच जाऊं । ‘ सुरसुन्दरी खड़ी हो गयी,,,, अमरकुमार खड़ा हुआ । दोनो को केवल चार प्रहर के लिये अलग होना था,,,, मात्र चार प्रहर । फिर भी जैसे चार युगों की जुदाई न हो, वैसी व्यथा अमरकुमार के चेहरे पर तैर आयी । सुरसुन्दरी ने अपनी व्यथा को अभिव्यक्त न होने दी । आखिर वह स्त्री थी न ! व्यथा….वेदना को भीतर में छुपाकर-दबाकर बाहर से खिशी-आनन्द-प्रसन्नता बनाये रखना उसे आता था । वह दंभ नही था….दिखावा नहीं था,,,,वह जिन्दगी जीने की कला थी । यदि स्त्री के पास यह कला होती है तो वह कभी भी अपने घर को स्मशान नही बनने देगी ! चाहे उसके भीतर के स्मशान में भावनाओं की चिता सुलग रही हो पर एक दूजे के दिल पर तो प्यार….करुणा….वात्सल्य के नीर ही छिटकने के ! अमरकुमार के प्रति प्यारभरी निगाहें छिटकती हुई सुरसुन्दरी धनवती के पास जा पहुँची ।

आगे अगली पोस्ट मे…

जीवन जैसे कल्पवृक्ष – भाग 1
May 24, 2017
जीवन जैसे कल्पवृक्ष – भाग 3
May 24, 2017

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