सुबह का बालसूरज सुरसुन्दरी के चेहरे पर अठखेलियां कर रहा था। उसकी रक्तिम आभा में…सुन्दरी का आंतर रुप अमर को पहले पहल नजर आया ।
सरगम के सप्त स्वरों को आंदोलित करती हुई शीत हवा हवेली के झरोखें में से आ आ कर कमरे को भर रही थी। भैरवि के करूण फिर भी मधुर स्वर में गुंथी हुई सुरसुन्दरी की आवाज श्री नमस्कार महामंत्र को और ज्यादा मधुर बना रही थी । अमर उस मधुरता की अनुभूति में आकंठ डूबने लगा था । सूरसुन्दरी ने एक सो आठ बार श्री नवकार मंत्र का गान किया । और ईशान-कोण में नतमस्तक बनकर ललाट पर अंजलि रचाकर परमात्मा को नमस्कार किया-भाववंदना की ! बार में समीप में ही बैठे हुए अमरकुमार को प्रणाम किया ।
‘यह क्या सुन्दरी ?’ ‘ मेरे प्राणनाथ के चरणों में आत्म-समर्पण !’ ‘ समर्पण तो भीतर का भाव है न ? उसकी अभिव्यक्ति क्यों ? ‘ ‘ प्रेम को पुष्ट करने के लिए ! ‘ ‘ क्या अभिव्यक्ति के बिना प्रेम पुष्ट नहीं हो सकता ?’ ‘ अभिव्यक्ति से एक तरह की तृप्ति मिलती है । ह्रदय की भावुकता जब झरना बनकर बहने लगती है तब …’ ‘ दूसरे दिलो को भी हरा भरा बना देती है … यही कहना है न ? ‘ ‘ आप तो मन की बातें भी जानने लग गये । ‘, दिलों का नैकट्य हो जाने पर यह तो सहज होने लगता है ।’ ‘ ऐसा तादात्म्य यदि परमात्मा के साथ हो जाय तो ?’ ‘ तब तो…’ ‘इस संसार के साथ का तादात्म्य ही नहीं रहेगा…। अपना तादात्म्य-नैकट्य भी नही रहेगा… यही कहना हैं न ! ‘ ‘ ओह, तूने भी मेरे मन की बात जान ली न आखिर ? ‘ ‘ पर … चाहे पर्याय का तादात्म्य टूट जाय पर आत्मद्रव्य के साथ का तादात्म्य तो रहेगा ही न ?’ ‘ यानि क्या, आज अपने को ‘ द्रव्य-पर्याय ‘ की चर्चा करने की है । ‘ , नही … चर्चा नही करनी है,,,, ह्रदय के भावों की अभिव्यक्ति करनी है । स्नेह एवं समर्पण के अतल समुद्र में गोते लगाने हैं । ‘
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