अमरकुमार व सुरसुन्दरी ने अहोभाव जताते हुए आचार्यदेव की प्ररेणा सुनी । उसे स्वीकार किया । पुनः वंदना की …. कुशलता पूछी और बिदा ली ।
दोनों उपाश्रय के बाहर निकले । अमरकुमार ने सुरसुन्दरी से पूछा :
‘तुझे मालूम है … राजसभा में अपनी परीक्षा होने वाली है ?’
‘नहीं तो …. किसने कहा ? मुझे तो तनिक भी पता नहीं है ?’
‘कल तेरे पिताजी ने मेरे पिताजीI को कहा होगा । मुझे तो आज सुबह मेरे पिताजी ने कहा ।’
‘क्या कहा ?’
‘तेरे पिताजी अब दोनों की परीक्षा राजसभा में लेना चाहते है ।’
‘पर परीक्षा किस बात की !’
‘यह तू जान लेना न ?’
सुरसुन्दरी विचार में डूब गयी …. उसे यह बात न तो मां ने की थी नहीं पिता ने की थी ।’
‘क्यों क्या सोचने लगी ? डर लग रहा है क्या ?’
‘ ऊं हूं…. डर किस बात का ? मैं तो यह सोच रही थी की मुझे तो मेरे पिता ने अथवा मां ने इस बारे में कुछ कहा भी नहीं है ।
‘शायद अब कहेंगे ।’
तो अपन तैयार है परीक्षा देने के लिये।’ ‘अच्छा , तुझे यदि कोई विशेष – नई बात जानने को मिले तो मुझे इतला देगी न ?
‘पर कैसे दू इतला ?’
‘तू मेरी मां से मिलने के बहाने चली आना हवेली पर ! मां तुझे याद भी करती है । ऐसा हो तो , मेरी माँ तुझे बुलावा भी भेज देगी ।’
‘हां, तब तो मैं सकती हूं ।’
अमरकुमार हलेवी की और चला । सुरसुन्दरी रथ में बैठकर राजमहल की तरफ चली । महल में पहुँचकर कपड़े वगेरह बदलकर वो सीधे ही पहुँची रानी रतिसुन्दरी के पास । उसके मन में इंतजारी थी अमरकुमार की कही हुई बात का तथ्य जानने की ।
‘बेटी, उपाश्रय जा आई !
‘हां मां !’
‘अनेकान्तवाद समझ में आया ?’
‘अरे मां ! इतना तो मजा आया कि बस ! गुरुदेव ने कितना विशद विवेचन करके मुझे समझाया अनेकान्तवाद के बारे में !’
‘अच्छा तो अब तू मुझे समझायेगी न ?’
‘बाद में , मां…. अभी तो अपन भोजन कर लें …. जोरों की भूख लगी है !’
भोजन करते करते रानी ने बात छेड़ी । ‘तेरे पिताजी आज कह रहे थे कि मुझे सुंदरी के बुद्धिवेभव की परीक्षा लेना है !’
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