महाराजा गुणपाल भय से सिहर उठे । दौड़ते हुए वापस महल में लौटे। मंत्रीगण,
सेनापति, नागरश्रेष्टि… सभी एकत्र हो गए थे ।
‘ओह ! गजब हो गया ! चोर ने कहर ढा दिया है ! विमलयश का अपहरण हो गया है ।
उसकी धन संपत्ति
भी चली गई है ।’ बोलते-बोलते राजा अपनी हथेलियों में मुह छुपाकर फफक पड़े। !
सभी किकर्तव्यमूढ़ बन चुके थे । क्या कहना ? क्या बोलना ? क्या करना ? कैसे यह
भेद खोलना ? किसी को कुछ सूझ नही रहा था ! सभी की आंखे भर आयी थी, निराशा …
हताशा… उदासी और ज्यादा कारुणता से छलक उठा : ‘मै मेरे प्रजाजनों की सुरक्षा
नही कर सका। परिवार की रक्षा करने में तो नाकाम रहा ही हु…. मेरे भरोसे जान
की बाजी खेलने वाले उस परदेशी राजकुमार को भी मै नही बचा सका ! मेरा कितना
दुर्भाग्य है ? अब मेरा जीना भी किसकाम का ? संसार मे मुझे जीने का कोई हक नही
है….। मेरा मन जीने से…. इस दुनिया से भर गया है । अब मुझे जीना नही है !
बेटी के बगैर ….. उस प्यारे परदेशी राजकुमार के बगैर मै जिंदा रहकर क्या
करूँगा ? मै जीना ही नही चाहता !
नगर के बाहर लकड़ियों की चिता रचा दो, मै अग्नि-प्रवेश करूँगा ! मुझे कोई
नही रोक सकता अग्नि-प्रवेश करने से ! मेरा निर्णय आखरी है !’
महारानी की चीख से वातावरण कॉप उठा ! आकाश में से जैसे बिजली टूट गिरी…
राजपरिवार फफकने लगा । मंत्रिमंडल रो पड़ा । नागरश्रेष्टि भी आंसू बरसाने लगे !
पूरा राजमहल विषाद से सिसकने लगा ! सभी ने अनुनय किया राजा को समझाने का, पर
राजा गुणपाल सभी को रोते छोड़ कर राजमहल का त्याग कर के महल की सीढ़ियां उतरने
लगे । राजमार्ग पर आगे कदम बढ़ाने लगे !
पूरे नगर में, जंगल में लगी आग की भांति खबर फेल गयी…’चोर ने विमलयश की
धनसंपत्ति लूट कर उसका भी अपहरण कर दिया है । राजा अब अग्निप्रवेश कर के अपनी
आहुति देने का निर्णय कर बैठे है । नगर के बाहर चिता जल उठेगी ! ‘
प्रजा में हाहाकार मच गया । चारो तरफ आंसू, उदासी ओर सिसकिया छा गयी ! हजारों
प्रजाजन रोते-कलपते महाराजा के पीछे चलने लगे । सभी स्तब्ध थे, उध्गींन थे,
उदास थे ।
रानी की आंखे तो रो रो कर सूज गयी थी । दिल मे से गरम गरम निश्वास निकल रहे
थे । वह रोती रोती बोल रही थी ‘मै भी नही जिऊंगी अब…. मै भी आपके साथ
अग्निप्रवेश करूँगी। बेटी और स्वामी के बिना जिउ कैसे ? मेरे कारण…. मेरी
बेटी के कारण बेचारा वह परदेशी कुमार भी बलि बन गया.. ! !
आगे अगली पोस्ट मे…