‘वह महामंत्र नवकार है,यक्षराज ! मेरी गुरुमाता ने मुझे ये मंत्र दिया है | मै रोजाना उसका जाप करती हु !मेरे लिए तो यही एक शरण्य है |’
‘सचमुच तू धन्य है ! मै तुझे मरी बेटी मानता हुँ |
अब तू मुझे बता की मै तेरे लिए क्या करू ?’
‘मेरे लिए आप कष्ट न उठाये….मुझे मेरी किस्मत के भरोसे छोड़ दे !’
‘नहीं….ऐसा कैसे होगा ?यह मेरा व्दीप है…तू मेरे व्दीप आयी है ,तो मेरी अतिथि है—मेहमान है | तेरी सर-संभाल रखना यह तो मेरा कर्तव्य है |’
‘तो क्या मुझे मेरे पति के पास पहुँचा देगे आप !’
‘जरुर ! पर कुछ दिन तुझे यहाँ रहना होगा | बेनातट नगर को और जाने वाला कोई जहाज यहाँ से गुजरेगा….उसमे तझे बिठा दुँगा | तुझे बेनातट में तेरे कान्त का मिलन होगा |’
‘तो मै आपका उपकार कभी नहीं भुलुगी |’
‘ओह !तेरा कृतज्ञता गुण कितना महान है। मै तेर पर प्रस्सन हूँ। बेटी मै तेरी जबान से तेरी रामकथा सूनना चाहता हूँ। यदि तुझे एतराज न हो तो बचपन से लेकर आज तक की बात मुझे बताओ ! बतायेगी न मुझे, बेटी ?’
‘जरुर ….जब आपने मुझे बेटी माना है तो फिर आप से क्या छुपाऊँ ?
सुरसुंदरी ने आपना सारा व्रतांत यक्ष को कह सुनाओ पर उसने कही भी अमरकुमार के प्रति कटुता का या दुराव नहीं आया तब यक्ष ने परेशानी से पूछा :
‘बेटी तू’ राजकुमारी है …क्या तुझे तेरे पति के प्रति गुस्सा नहीं आता ?’
‘उन पर गुस्सा क्यों करूँ ? वे तो गुणी पुरुष है….मेरे ही पापकर्म उदय मे आये, इसलिए उन्हें मेरा त्याग कर ने की सूजी |
वे तो निमित बने है |’
‘पर उसने तुझको दुखी तो क्या है न ?’
‘उन्होंने मुझे दुखी नहीं किया, मेरे ही पापकर्मो के उदय से दुखी हुई हूँ | फिर भी अब वह दुःख चला गया |’
‘किस तरह ?’
आगे अगली पोस्ट मे…