चार विद्याओ की प्राप्ति से उसे अपनी महत्वकांशा साकार होती देखी ।चारो
भाभियो के प्रति सुरसुन्दरी भाववीभोर हो उठी ।
‘तुमने तो मुझे मेरे जितने उपकार ठाले दबा दिया ।’
नही ….ऐसा मत बोलो , दीदी …. यह तो हम क्या दे रहे है ? कुछ भी नही ! हम
कोई तुम्हारे पर एहसान थोड़े ही कर रहे है ? तुमने हमारे पर जो उपकार किया है
…. हमे जो जीने का सच्चा एवं अच्छा रास्ता दिखाया है …. तत्व चिंतन दिया
है।
‘ सुरसुन्दरी ने मणिप्रभा के मुंह पर अपनी हथेली ढपते हुए कहा :
रहने भी दो …. भाभी ! आज ऐसी बाते नही करना है ।आज तो ऐसा करे …. एकाध
तीर्थ की यात्रा कर आये …. ! फिर न जाने कब मिलना हो ?कब साथ हो ? यदि भैया
को अनुकूलता हो तो । तुम यही बेठो …. मै भैया से पूछ कर आती हु ….।
सुरसुन्दरी उठ कर शीघ्र ही रत्नजटी के कमरे में पहुँची। रत्नजटी ने उठ कर
सुरसुन्दरी का स्वागत किया । सुरसुन्दरी ने रत्नजटी के सामने देखा । रत्नजटी
का उदासी एवं आँसुओ से भरा चेहरा देखा …. दुखी दुखी हो उठी सुरसुन्दरी !
भैया… यदि तुम्हे अनुकुल हो तो अपन सम्मेत शिखर तीर्थ की यात्रा कर आये ।
‘जरूर बहन… मुझे अनुकुल ही हे ।’ तो तुम तैयार हो… ”’ मै भाभियों को
तैयार करती हूँ ।’
सुरसुन्दरी रत्नजटि के खंड में से निकलकर अपने कमरे में आयी…”’ रानियों से
तैयारी करने को कहा और स्वयं भी तैयारी में लग गयी । रत्नजटि ने अपना विमान
तैयार किया। चारों रानियों एंव सुरसुन्दरी को विमान में बिठाया…. ”’ और
रत्नजटि ने विमान को सम्मेत शिखर की ओर गतिशिल किया । एकाध घंटे में तो
विमान पहुँच गया सम्मेत शिखर पर्वत पर। सभी ने भक्ति भाव पूर्वक तीर्थ यात्रा
की । जिन भक्ति की । परन्तु यात्रा के दौरान रत्नजटि बिलकुल खामोश रहा । उसका
विषाद बर्फ हुआ जा रहा था। विमान वापस सुर-संगीतपुर नगर में आ पहुंचा ।
रत्नजटि अपने आवास में चला गया चुप्पी साधे हुए। रानियां भी सुरसुन्दरी के साथ
अपने खंड में चली गयी ।
भोजन का समय हो गया था । सुरसुन्दरी ने रत्नजटि को भोजन करवाया । निगाह
जमीन पर रखे रत्नजटि ने भोजन कर लिया । रानियों ने भी सुरसुन्दरी के साथ बैठकर
भोजन कर लिया ।
आगे अगली पोस्ट मे…