सुरसुन्दरी मोन रही…. उसके चेहरे पर विषाद की बदली तेरने लगी।
‘दीदी…. फिर कभी अपने भाई को याद कर के यहा आओगी ना ? हमे भुला तो नही दोगी?
रविप्रभा का स्वर वेदना से छलकने लगा था ।
भाभी….जैसे भाई को नही भुला सकूँगी जिंदगी भर ….. वैसे तुम जैसे मेरी
प्यारी प्यारी भाभियो को भी नही भूल पाऊंगी…. पलभर भी !’
सुरसुन्दरी भी सिसकने लगी थी ।
दीदी …. हमारी कुछ भेट स्वीकारोगी ना ?’
‘यहां आकर तुम्हारा सब कुछ मेंने स्वीकारा है…… मैनें क्या नही लिया तुमसे ?
औऱ तुमने क्या नही दिया मुझे ? सब कुछ दिया …..मैने सब कुछ लिया।अब और बाकी
क्या रह गया है ? तुम्हारा इतना प्यार मिलने के बाद औऱ क्या में चाहूंगी ?
‘ दीदी … ऐसी बाते मत करो… हमने तो तुम्हे दिया ही क्या है ? अब हम चारो
भाभियां तुम्हे एक एक विंधयाशक्ति देंगी।
पहली विद्या है रूपपरावर्तिनी । उस विद्या से तुम अपना मनचाहा रूप बना सकोगी ।
दूसरी विद्या है अद्रश्यकर्णी ।इस विद्या के बल पर तुम चाहो तब अदृश्य हो
पाओगी । तुम्हे कोई देख नही पायेगा।
तीसरी विद्या परविद्याछेदीनि के बल पर अन्य कोई एरी -गेरी विद्याशक्ति या
मंत्रशक्ति तुम्हारा कुछ नही बिगाड़ सकेगी।
चौथी विद्या है ‘ कुंजरशतबलनी ‘।इस विद्या के स्मरण से तुम्हारे शरीर मे सौ
हाथी जितनी ताकत उभरेगी ।
वाह यह तो अद्भुत है … सुरसुन्दरी रोमांचित हो उठी !
‘तुम्हारे भैया तुम्हे ये सारी विद्या सिखायेगी ‘
सुरसुन्दरी गद गद हो उठी । ये सभी विद्याए उसके वास्ते अत्यंत उपयोगी हो
सकेगी । चुकी बेनातट नगर में जाने के बाद भी जब तक अमरकुमार से मिलना न हो तब
तक तो उसे अकेले रहना था । अपने शील का जतन करना था …. और फिर उसकी भीतरी
इच्छा अच्छा सा राज्य पाने की भी थी। चुकी अमर की चुनोती पूरी जो करना थी ।
आगे अगली पोस्ट मे…