‘मंजरी…. मेरी बहन । गुरुदेव ने हमारा पूर्वभव कहा । हमें भी जातिस्मरण ज्ञान हुआ। हमने भी खुद हमारा पूर्वजन्म देखा… जाना…. और हमारे दिल कांप उठे है ! संसार मे रहना… कुछ दिन भी संसार में गुजारना… अब हमारे लिये दुःखद बन गया है ! शायद तू’ अति आग्रह करेगी…. इजाजत नही देगी…. तेरा मन नही मानेगा… तो हम संसार में रुक जरूर जायेंगे पर हमारा दिल….’सुरसुन्दरी बोलते बोलते तो रो पड़ी…. गुणमंजरी सुरसुन्दरी से बेल की भांति लिपट गईं ।
‘नही…नही…तुम रोओ मत ! मै तुम्हे दुःखी नही करूंगी…। तुम्हारी राह में विघ्न नही बनूगी…।’ गुणमंजरी ने सुरसुन्दरी के आंसू पौछे ।
‘मंजरी ! अमरकुमार ने मौन तोड़ा । गुणमंजरी ने अमरकुमार के सामने देखा…. अमरकुमार ने कहा :
तू ऐसे तो नही मानेंगी न मैने तेरे साथ विश्वासघात किया है ?’
‘नही…. नही… वैसा तो विचार तो मेरे दिमाग़ में भी नही आएगा नाथ ! पर आप बिना मेरा जीवन, जीवन नही रहेगा। मै जिऊंगी पर जिंदा लाश की तरह ! साँसों का जनाजा उम्र के कंधे पर ढोती हुई जीती रहूंगी । यह दिल दिल नही रहेगा…. सांसो के आने-जाने का यन्त्र बन जायेगा…. तुम्हारी यादें… मेरे दिल को कितना तड़पायेगी ? कितनी चोट लगेगी… ह्रदय को ? वह चोट मै कैसे सह पाऊंगी….? तुम्हारे पीछे में रो रो कर पागल हो जाऊंगी…। और मै करूंगी भी क्या ? किसके लिये जिऊंगी ? कौन सा बहाना रहेगा मेरे जीने के लिये ? मेरा तो सर्वस्व ही लूट जायेगा !’
गुणमंजरी दो हाथों में अपना चेहरा छुपाकर फफक पड़ी !
‘मंजरी, राग… तीव्र अनुराग ऐसी ही स्थिति पैदा करता है ! तेरे को यह राग कम करना होगा। संबंधो की अनित्यता को बार बार सोचकर समझकर उस राग के जहर को उतारना होगा । संबंधो की चंचलता का चिंतन ही शांति दे पायेगा । स्वस्थता प्राप्त हो सकेगी इसी से ! और एक दिन तेरा मन भी संबंधो के बंधनों से मुक्त हो जायेगा ।’
जब ज्ञानी गुरुदेव ने हमारे पूर्वभव का वर्णन किया…. हमने जाति स्मरण ज्ञान से वह देखा… जाना… तब कर्मो की कुटिलता को समझा । इस संसार में जीवात्मा कर्मो के परवश पापकर्मो का आचरण तो ले लेती है, पर इसके भयंकर परिणाम कैसे आते है ? बारह घड़ी के किये हुए पाप बारह बरस की सजा दे गये ! जब कि मैने इस जन्म में ही कितना भयंकर पाप किया है ? मुझे उन बाँधे हुए पापकर्मो का उग्र तपश्चर्या करके नाश करना है । अब इन संसार के सुखों के प्रति मेरा मन पूरा विरक्त हो गया है ।
आगे अगली पोस्ट मे…