अमरकुमार के रक्षक जहाजों की रक्षा करने के लिये तैनात खड़े थे। राजपुरुषों ने कहा :
‘हम महाराजा की आज्ञा से आये है । हमें तुम्हारे सेठ के सभी जहाज देखने है ।’
‘पधारिये … जहाज पर । हमारे सेठ भी अभी अभी ही वापस लौटे है राजसभा में से ।’ रक्षक लोक राजपुरुषों को जहाज पर ले गये। अमरकुमार से मिले।दो राजपुरुष अमरकुमार से बतियाने लगे। दूसरे दो आदमी एक के बाद एक जहाज में , साथ में लाये हुए अलंकार छुपाते हुए आगे बढ़ते गये। कार्य बड़ी कुशलता से निपटाकर वह वापस अमरकुमार के जहाज पर आ गये।
‘सेठजी , आपके जहाजों में तो देश – विदेश का अदभुत माल भरा हुआ है । यह सारा का सारा माल बेनातट नगर में बिक जायेगा.. और तुम ढेर सारी संपति कमाकर के जाओगे ।’
‘बेनातट की ख्याति सुनकर तो मैं यहां पर आया हूं… महाराजा ने भी मेरे पर बड़ी मेहरबानी की … मुझे व्यापार करने की अनुमति दी …’
‘पर सेठ, एक बात ध्यान में रखना …’
‘क्या बात ?’
‘हमारे महाराजा न्याय – नीति और प्रामाणिकता के बड़े आग्रही है… इसलिए व्यापार करते समय …’
‘ओह , समझ गया …. मेरा भी यही मुद्रालेख है … न्याय नीति ही मेरे व्यापार का मुख्य सिद्धांत है ।’
‘तब तो तुम यहां पर विपुल संपति अर्जित कर सकोगे ।’
राजपुरुष नाव में बैठकर वापस किनारे पर लौट आये और सीधे विमलयश के पास पहुँच गये । विमलयश का समाचार दे दिये ।
विमलयश ने कहा :
‘अब तुम जाओ और सेनापति मुत्यु जय को मेरे पास भेजो ।’
मुत्यु जय कुछ ही देर में उपस्थित हुआ ।
‘आज्ञा कीजिये… मुझे कैसे याद किया ?’
मुत्यु जय , मेरे महल में से मेरे रत्नजड़ित अलंकारों की चोरी हो गई है ।’
‘आपके वहां पर चोरी ?’ मुत्यु जय की भौहें खिंच गई ।
‘हां… और वह चोरी करनेवाला कौन है … उसका मुझे ख्याल भी आ गया है …’
‘कौन है वह चोर ?’
‘आज आया हुआ सार्थवाह। मैंने राजसभा में जब पहले पहल उसे देखा तब ही मुझे महसूस हो गया था कि यह आदमी बाहर से जितना भोला – भाला लगता है … भीतर से वैसा नहीं है …’
‘तब तो उसे बंधक बना कर यहां ला पटकू अभी।
‘नहीं… तुम जाओ… उसके पास… उसे थोड़ा धमकाना… फिर उसके जहाजों की तलाशी लेना… चोरी का माल पकड़ो… माल यदि मिल जाये… तो उसे पकड़कर यहां मेरे पास ले आओ… और हाँ , तुम्हारे साथ में मेरे आदमियों को भी भेजता हूं। वह अभी अभी उस सार्थवाह से मिलकर आये है ।’
आगे अगली पोस्ट मे…