दूसरे दिन सवेरे अमरकुमार और सुरसुन्दरी गुरुदेव के दर्शन-वंदन करने गये, तब वहां पर उन्होंने गुरुदेव के समक्ष कुछ तेजस्वी स्त्री-पुरुषों को धर्मोपदेश श्रवण करते हुए देखे । वे दोनों भी वहां बैठ गये ।
उपदेश पूर्ण होने के पश्चात मुनिराज ने कहा :
‘सुरसुन्दरी, ये विद्याधर स्त्री-पुरुष है । वैताढ़य पर्वत पर से यहां दर्शन के लिये आये है ।’
सुरसुन्दरी ने तुरंत ही गुरुदेव से बड़े अनुनयभरे स्वर में कहा :
‘हे पूज्यपाद, क्या ये विद्याधर पुरुष मेरे पर एक कृपा करेंगे ? सुरसंगीत नगर के राजा रत्नजटी जो कि मेरे धर्मबन्धु है…. उन्हें मेरा एक संदेश पहुँचा देंगे क्या ?’
‘जरूर…. महासती ! राजा रत्नजटी तो हमारे मित्र राजा है ।’
‘तो उन्हें कहना कि तुम्हारी धर्मभगिनी सुरसुन्दरी उसके पति अमरकुमार के साथ थोड़े ही दिनों में संयमधर्म अंगीकार करनेवाली है। तुम्हे और चारो भाभियों को वह अत्यंत याद कर रही है…। तुम्हारे उपकारों को, तुम्हारे गुणों को रोजाना याद करती है….। तुम चारों भाभियों को लेकर दीक्षा प्रसंग पर चंपानगरी में जरूर पधारना। उन्हें कहना कि तुम्हारी भगिनी पलक पावड़े बिछाये तुम्हारी प्रतीक्षा करेंगी….।’ सुरसुन्दरी की आंखें बरस पड़ी…. उसका स्वर रुंध सा गया ।
‘आपका संदेश हम आज ही महाराजा रत्नजटी को पहुँचा देंगे महासती ! और हम भी उन्हें आग्रह कर के कहेंगे कि वे जरूर-जरूर चंपा में तुम्हे मिले ।’
‘तो तो मेरे पर तुम्हारा महान उपकार होगा ।’
विद्याधर युगल आकाशमार्ग से चले गये ।
अमरकुमार-सुरसुन्दरी ने गुरुदेव को वंदना की, कुशलता पूछी और विनयपूर्वक गुरुदेव के समक्ष बैठे । सुरसुन्दरी ने कहा :
‘गुरुदेव, हमारे पूज्य माता-पिता आपको वंदन करने के लिए रोज़ाना आयेंगे । आप उन्हें प्रेरणा देने की कृपा करना की वह हमें शीघ्र अनुमति दे….!’
‘भद्रे, तुम निश्चित रहना । तुम्हे अनुमति मिल जायेगी…. और घर पर पहुँचोगे तब वहां पर गुणमंजरी भी पुत्र के साथ तुम्हे मिल जायेगी !’
‘क्या….? ?’
दोनों आनंदविभोर हो उठे !