‘नाथ… मै मेरे गुनाहों की माफी चाहती हूं । मैने आप पर चोरी का आरोप रखा…आपको सताये.. मेरे पैरों में आप से घी घिसवाया…. आप मेरे इन अपराधों को भुला दोगे ना ?’
‘नही रे… बचपन का तेरा छोटा सा अपराध बरसो तक नही भुला सका, तब फिर ये सारे अपराध कैसे भुला दूंगा ?
वापस तेरा त्याग करके चला जाऊंगा ।’
‘अब तो जाने ही नही दूंगी ना….?अदृश्य करबन पीछा करूंगी ।’
‘ओह बाप रे…. अब तो तुझे जरा भी सताया नही जा सकेगा…. चार चार विद्याए तेरे पास है…. और सो हाथी जितनी ताकत !’
‘घबराना मत…. उस चोर पर जैसा मुष्टिप्रहार किया… वैसा नही करूँगी…! पर यदि मुझे परेशान करोगे तो मै मेरे भाई को बुला लूँगी…!’
‘अरे… मै तो भूल ही गया यह बात ! अपन चम्पानगरी पहुँचे व तब तू अवश्य तेरे उन उपकारी भाई-भाभियो को अपने वहां आने का निमंत्रण भेजना । मै उनके दर्शन करके कतार्थ बनूगा… ‘बहुरत्ना वसुंधरा….’
अभी तो मैने सुरसंगीत नगर की सारी बातें की कहां है ? जब वे बातें आप सुनोगे तो आप भावविभोर ही उठोगे ! पर वह सब बातें मै आपको तब करूंगी जब कि आप मेरे अपराधों को क्षमा कर दोंगे! ! !
‘मिच्छामि दुक्कडं
‘मिच्छामि दुक्कडं
दोनों ने आपस में क्षमायाचना कर ली… सुरसुन्दरी ने अमरकुमार से कहा :
‘नाथ, प्रभात में मै ‘विमलयश’ होऊंगी… महाराजा को आपका सच्चा परिचय देना होगा । मेरा भेद भी उनके समक्ष खोलना होगा । गुणमंजरी को सारी परिस्थिति का परिचय देना होगा !
‘और नगर में भी तो सब को मिलना होगा ना ? मुझे चोर में से साहूकार बनाना होगा ना ? ‘
‘हां…. वह आरोप भी उतारना होगा…! !’ दोनों हंस दिये मुक्त-मन से ।
सुरसुन्दरी ने पद्मासन लगाकर रूपपरावर्तिनी विद्या का स्मरण किया। वह पुरुषरूप में बदल गई… वस्र-परिवर्तन कर लिया ।
प्रभातिक कार्यो से निपटकर, अमरकुमार के साथ दुग्धपान करके विमलयश महाराजा गुणपाल से मिलने के लिये राजमहल पर पहुँचा । महाराजा भी प्रभातिक कार्यो से निपटकर बैठे हुए थे ।
विमलयश ने महाराजा को प्रणाम किये और उसके समीप में बैठ गया ।
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