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फिर वो ही हादसा – भाग 7

सुरसुन्दरी ने अपने स्वर में शख्ती लेते हुए कहा :
‘फानहान, एसी ही बात कुछ ही दिन पहले तेरे जेसे एक व्यापारी धनंजय ने मेरे सामने रखी थी | जब मैंने इन्कार किया तो वह मेरे पर जबरदस्ती करने पर उतारू हो उठा था पर मैंने चतुराई सी मेरी सुरक्षा कर ली |आखिर मै अपनी इज्जत बचाने के लिए महासागर में कूद गई | उसी समय उसका जहाज समुद्र के तूफान में फस कर टूट गया | वह धनंजय अपने काफिले के साथ सागर में समां गया | मैंने यह सब खुद अपनी आँखो से देखा है | उसी टूटे जहाज का एक पाटिया मेरे हाथ लग गया …और मै उस पटिये के सहारे तैरती -तैरती बेनतट नगर के किनारे पर चली आई …फिर जो कुछ हुआ …तुम्हे मालूम है |’
फिर से कह रही हू …यदि तेरी इच्छा भी धनंजय की भांति इस समुद्र की गोद में समां जाने की हो तो हिम्मत करना | गनीमत होगा इस बात को ही समुद्र में फेंक दे |फिर कभी ऐसी बात होठो पर गलती से भी मत लाना |’
एक ही सास में सुरसुन्दरी सब कुछ बोल गयी | वह हांफने लगी थी | फानहान सोच में डूब गया | सुरसुन्दरी ने गरजते ~लरजते सागर की ओर देखा | फानहान खड़ा होकर कमरे में चक्कर काटने लगा |
‘यह औरत रोजाना कोई मंत्र जपती है, वह तो मै खुद देखता हूँ | क्या पता, इसे किसी दैवी सहाय का सहारा हो….इसने जिस दुर्घटना का वयान किया….वह सच भी हो सकता है | मुझे अपना सर्वनाश नहीं करना है | इसके ऊपर में जबरदस्ती करने जाऊ….और यह समुद्र में छलाग लगा दे तो ? फिर मेरा जहाज समुद्र में टूट गिरे तो ?’
‘नहीं….नहीं, में तो व्यापारी हूँ….पैसा कमाने को निकला हूँ….मेरे पास पैसा आएगा तो ऐसी कई औरतो को में आसानी से प्राप्त कर लुगा | इसको मुझे भरोसा दिला देना चाहिए | कही मेरे डर से यह समुन्द्र में कूद न जाये !’
उसने सुरसुन्दरी की ओर देखा |
सुरसुन्दरी दरिये की तरफ ताक रही थी |
सुंदरी, मै आपनी बात छोड़ देता हूँ | तू निशिचंत रहना | अब में तेरे कमरे में भी नहीं आऊगा | मुझे मालुम नहीं था की तेरे पर देवो की क्रपा है…मेरी गलती को माफ़ कर देना |’
‘तुमने मेरी जान बचाई है….तुम मेरे उपकारी भाई हो….मेरे दिल मै तुम्हारे लिए जरा भी नफरत नही है |’
फानहान अपने कमरे में चला गया | वह व्यापारी था | उसे पैसो की ख्वाहिश थी | उसके दिमाग में कोई और ही योजना आकर ले रही थी।

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