यह घटना लगभग चालीस वर्ष पूर्व मोतिहारी, पूर्वी चम्पारण (बिहार)-की है।
एक गरीब मास्टर थे। बहुत तंजीमें उनका जीवन बीत रहा था। स्कूल की थोड़ी-सी तनख्वाह । चार बच्चों के साथ उनका गुजर-बसर बहुत मुश्किलसे हो पा रहा था।
एक दिन उसका बड़ा बेटा बीमार हो गया। मास्टर साहब उसे अस्पताल ले गये, दवा दिलवायी । स्थिति ठीक हुई तो उसे घर ले आये। घर आते ही उसने कहा-बाबूजी!मेरे बकीके रुपये भी वापस कर दो न! पिता ने पूछा-कैसे रुपये? लड़का – मेरे वही 140 रुपये, जो बाकी हैं , दे दो न? अब मैं जाऊँगा।
पिता -पैसे-रुपये कहा है मेरे पास?
लड़का-‘ये घड़ी है न आपके पास। इसे ही बेच कर मेरे पैसे दे दो? अब कबतक इन्तजात करता रहूँ? अपना बकाया लेकर मैं जाऊँगा ।
बात पिताकी कुछ समझ मे नही आयी । उन्हें लगा, बीमारी से बच्चा दुर्बल होगया है और ऐसे ही कुछ भी बड़बड़ा रहा है।
कुछ ही दिनों बाद बच्चे की तबियत पुनः बिगड़ने लगी । उसे वापस अस्पताल लाना पड़ा। डॉक्टर ने दावा लिखी । दावा ख़रीद ने के लिये इस बार मास्टर साहब के पास बिलकुल पैसे नही थे । मजबूरन उन्हें अपनी घड़ी बेचनी पड़ी। दावा 140 रुपये की आयी।
जब वे दावा लेकर बच्चे के पास गये , तब लड़के ने हाथ बढ़ाकर दवा ले ली । उसके चहरे पर संतोष छलक आया। उसने कहा-‘हाँ, ठीक है । अब मै जाता हूँ।’ हाथ में दवा थामे लड़के ने सदा के लिये आँखे बंद कर ली। आवक्र खड़ा पिता पहले कहे हुए उसके शब्दोंका सामंजस्य बिठाता रहा,उसे समझने का प्रयत्न करता रहा।
क्या जीवनके सब रिश्ते लेंन -देंनका हिसबमात्र ही नही है?