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विशल्या का पुर्वजन्म

लक्षमण की 16000 पत्नियों में पट्टरानी तरीके का पद विशल्या के हिस्से में गया । यह विशल्या इतनी पवित्र तथा पुण्यशाली स्त्री थी की जिसे स्पर्श करें उसका बड़ा से बड़ा उपद्रव्य दूर हो जाय । अरे, विशल्या ने स्नान किया हुआ पानी जिसके ऊपर छाँटने में आये उसकी मरी – मरकी, मन्त्र – तन्त्र वगेरे दर्द तत्क्षण ख़त्म हो जाय । जिस मंत्रशक्ति का निवारण मंत्रशास्त्र द्वारा भी नही हो सकता ,उसका निवारण विशल्या के सिर्फ स्नान जल से हो जाता था ।
लक्षमण को जिन्दा करने वाली यह विशाल्या ही थी ना ? रावण की ‘अमोध विजया ‘ शक्ति से लक्षमण जब गिर गये तब उनके प्राणो का अंत निश्चित था यदि यह विशल्या न होती । लक्ष्मण को बेहोश करने वाली ‘ अमोध विजया’ विशल्या के हस्तस्पर्श से ही भाग गयी । धरणेन्द्र जैसे धरणेन्द्र से अधिष्ठित यह शक्ति भी विशल्या के सामने हार गई ।
विशल्या के शरीर में इतना सत्व किस तरह से अवतरित हुआ होगा ? ऐसा प्रशन यदि उठता हो तो उसका जवाब है , उसने किया हुआ उग्र तप । पिछले जन्म में उसने जो तप किया था, उसका यह उग्र प्रभाव था ।
पिछले जन्म में यह विशल्या त्रिभुवानन्द नामक चक्रवर्ती की अनंगसुन्दरी नामक पुत्री थी । महाविदेह क्षेत्र की विजय में वह जन्मी ।पुनर्वसु नामक कोई विद्याधर आकाशमार्ग से जा रहा था तब उसने इस अनंगसुन्दरी को देखा । देखते ही उसके अंग अंग में कामज्वर प्रज्वलित हो गया ।
अनंगसुन्दरी चक्रवर्ती की पुत्री थी तो भी वह जरा भी दरी नही । पकड़ा जाऊंगा तो चक्रवर्ती मेरी क्या दशा करेगा ? इतना भी विचार किये बिना पूनर्वसु ने उस कन्या का अपहरण किया । कन्या उस समय छत पर बैठी थी इसलिए हाथ में आ गयी । कन्या को लेकर वह पुर्नवसु सीधा विमान में कूद पड़ा । आकाशमार्ग से पलायन किया । चक्रवर्ती ने उसके पीछे विद्याधरराजाओ को भेजा । उसे बंदी बनाने के लिए ही तो । चक्रवर्ती के विद्याधरों ने थोड़े समय में ही पुनर्वसु को आकाश में घेर लिया । पुनर्वसु उन सबके साथ अकेला ही लड़ने लगा तथा उनके घेरे को तोड़कर आगे बढ़ने की कोशिश करता रहा ।इस युद्ध में वह अनंगसुन्दरी विमान में से नीचे पड़ी। तत्काल किसी को मालूम भी नहीं पड़ा । जब मालूम पड़ा तब दोनों तरफ के विद्याधर कहीं आगे बढ़ गये थे ।
अंत में, सुंदरी ही बच नही सकी इससे युद्ध रुक गया । सब बिखर गये । खूब छानबीन हुई परन्तु अनंगसुन्दरी नहीं मिली तो न ही मिली। चक्रवर्ती को भी तथा पुनर्वसु को भी । चक्रवर्ती को भी तथा पुर्वरसु को भी । चक्रवर्ती ने अंत में मन मोड लिया परन्तु पुर्वरसु की आसक्ति तो सुंदरी में ही ओतप्रोत रही।
अंत में पुनर्वसु ने दीक्षा ली ।”इस भव में भले ही न मिली; आनेवाले भव में भी इसी अनंगसुन्दरी का पति बनूँ । उसके जैसी अनेक सुंदर कन्याओं का मालिक सम्राट बनूँ।” पुनर्वसु मुनि ने नियाणा किया । काश! अनेक वर्षों तक किया हुआ अति कठिन तप बेच डाला ।
इस तरफ वह अनंगसुन्दरी किसी अनजाने जंगल में लतागृह पर गिरी हुई थी। वह बच तो गई परन्तु उसका जिना मौत से भी ज्यादा करुण बना । एकदम एकाकी अपरिचित जंगल । कहीं मनुष्य की गंध भी न मिले । खुद कोमल कन्या । कल्पना भी डरानेवाली है।
उसने निश्चित किया। अब धर्म की ही शरण है । संकट जब मौत से बदतर बनकर आयी है तब असमाधि में फँसना (जाना) नहीं है। धर्म में लीन बन जाना है । उसने अनशन स्वीकारा ।समतापूर्वक तप करने लगी । दुष्कर्म का ज्यादा प्रचंड़ उदय हआ। घोर तप करती इस अनंगसुन्दरी को कोई अजगर पूरा का पूरा निगल गया।
इतनी भीषण स्थिति में घिर जाने के बाद भी उसने समाधि बनाये रखी।
खुद ने स्वीकारे हुए अनशन के प्रति बहुत खुमारी अनुभव करती हुई वह मृत्यु शरण बनी। विशल्या के रूप में पैदा हुई।
दूसरी तरफ उस पुनर्वसुमुनि की आत्मा मरकर दशरथराजा का पुत्र बनी। लक्ष्मण वासुदेव उसका नाम।
पिछले जन्म का मोह पाश यँहा पर भी दोनों को बाँधकर रहा।
हाँ! विशल्या के स्नानजल का जो अचिन्त्य प्रभाव था, वह उसकी शादी तक टिका । शादी होने के बाद नहीं । यह प्रभाव उसके पिछले जन्म की तपसाधना को आभारी था । ब्रह्मचर्य का पालन होता था , तब तक अडिग रहा । तप का बल भी ब्रह्मचर्य के साथ – साथ ही फल देता है ना?

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