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विद्याधरपति, इंद्रराजा का पूर्वजन्म

विद्याधरो की महासत्ता समान इंद्र राजा को रावण ने पराभूत किया। पराभूत तो किया उसके बाद prapose किया कि मेरी लंका में रोज झाड़ू लगाना पड़ेगा।यह बात स्वीकार कर तो तुझे पिंजरे में से छोडुगा अन्यथा पूरी जिंदगी पिंजरे में रहना पड़ेगा।

इंद्र ने बेबस दिल के साथ रावण की बात मान्य की । रावण के कैदखाने से मुक्ति प्राप्त की । वः बहुत उदास रहने लगा क्योकि तेजस्वी पुरुषों को अपमान मृत्यु से भी ज्यादा खराब लगता है। एक समय के विद्याधरो के मालिक को लंका की गलियों में झाड़ू लगाना पड़े यह कितनी क्रूर घटना है ।कल्पना करके देखो ।

एक बार ‘निर्वानसंगम’ नाम के कोई ज्ञानी मुनिराज इस इंद्र को मिले । इंद्र ने उन्हें पूछा-रावण के साथ युद्ध में मेरी हार कैसे हुई?बल तथा मंत्र से में उससे जरा भी कम नही था । तो आज बंधन से मुक्त होने के बाद भी मुझे क्यों तिरस्कारपूर्वक जीवन जीना पड़ रहा है?
उसका कारण तूने पिछले जन्म मे साधुओं के जो वध – बन्धन किये हैं वे हैं…… ज्ञानी भगवंत ने कहा । भगवंत , मेरा पूर्वजन्म मुझे सुनाने की कृपा करो।

पिछले। जन्म में तू तडितप्रभ नामक विद्याधर था। चंद्रावर्तनगर का राजा।अहल्या नामकी कोई राजकन्या के स्वयंवर में तू पहुँचा । तेरे जैसे अनेक विद्याधर वहाँ एकत्रित हुए। तेरे विमान में तेरे साथ आनन्दमाली नामक विद्याधर भी आया था। जो सूर्यावर्त नगर का स्वामी था। कन्याने इस आंनदमाली के गले में वरमाला पहनायी जिससे तुझे बहुत अपमान लगा। तू हाजिर था तो भी उसने तुझे क्यों नही स्वीकार किया ? और तेरे मित्र को कैसे स्वीकारा? यह तेरा ईष्याभरा गणित था।

तब तो तुम जुदा हो गये पर तेरे मन में आंनदमाली के लिये अप्रीति की गाँठ यथावत रही। कितने समय बाद आनन्दमाली राजा ने वेराग्यपूर्वक दीक्षा ली। गुरुगच्छ के साथ विचरते हुए वे आत्मसाधना में आगे बढे । उन्हें आतापना करने की छूट मिली।

रथावर्त नामक पर्वत पर वे गच्छ के साथ रुके हुए थे । वहाँ वे कायोत्सर्ग का स्वीकार करके खड़े रहे । योगानुयोग तू भी क्रिड़ा के लिए वहाँ आ गया।

आंनदमाली मुनि को देखकर तेरे द्वेष की गाँठ का जैसे विस्फोट हुआ। तुझे अहिल्या के स्वयंवर की स्मृतियां याद आई। वैर का बदला लेने का तूने शुरू किया। मुनिवर को दृढ बंधन से बांधा । उसके बाद बहुत मारा । मुनिराज की शरीर खून से घायल हो गई थी तो भी वे समता से पतित न हुए । प्रतिकार तो किया है नही , तुझे जवाब भी नही दिया। अरे!आऊसग्ग भी नही छोड़ा।
यह सब उनके गुरुभाई देख नही सके। कल्याण गणिवर उनका नाम । वे भी अनेक लब्धिओ के भण्डार थे । उन्होंने तेरे ऊपर तेजो लेश्या छोड़ी । इस समय तेरी पत्नीयां बहुत डर गई। उन सबके साथ सत्यश्री नामकी तेरी पट्टरानी ने कल्याणगणि को विनंति की की हमे पति भिक्षा दो । अंत में मुनिराज ने तेजोलेश्या वापिस खिंच ली। इससे तू बच गया।

तूने मुनि को जो बाँधा तथा ताड़न – तर्जन किया, इससे ऐसा चिकना कर्म बाँधा की यहाँ युद्ध में हारा । रावण के पिंजरे में तुझे साँकली से बाँधा गया। उसके बाद भी तेरे पास हरिजन के काम कराने में आये ।

इंद्रराज वैराग्य से ओतप्रोत हो गए । उन्होंने तत्काल दीक्षा ली । अंत में केवलज्ञान प्राप्तकर वे उसी भव में सिद्धि वधु के भोक्ता बने।

– आधारग्रंथ :त्रि.श.पु. चरित्र।

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