कृष्ण वासुदेव के पिता का नाम वसुदेव था । वे ना तो चक्रवर्ती थे की नही वासुदेव थे फिर भी इतना अद्वितीय रूप , इतना प्रचंड यश तथा इतना प्रखर सौभाग्य प्राप्त किया जिसकी सामान्य मनुष्य कल्पना तक नही कर सकता ।
उनको एकबार देखनेवाली ‘स्त्री’ उन पर ‘फिदा’ हो जाती थी । कभी भूल नही सकती थी । वे जब जवान थे तब शोरीपुरी की नारियाँ उनकी सिर्फ एक झलक पाने के लिये उनके पीछे चली जाती थी । घरकाम को – कुलमर्यादा को भी भूल जाती थी । अरे! खानदान स्त्रियो भी मन पर काबू नही रख सकती थी । वे इस हद तक स्त्रीओ के प्रिय बन गये । अनुक्रम से ७२,००० स्त्रियों के वे पति बन गये चक्रवती को भी विवाहित पत्निया ६४,००० ही होती है । और वसुदेव को भी उसकी संख्या १६,००० ही है जबकि वसुदेवने ७२,००० स्त्रियों के साथ विधिपूर्वक शादी की थी ।
ऐसा था , उनका अति उग्र कोटि का भोग पुण्य । यह भोग पुण्य उन्हें ‘वैयावच्च’ गुण की साधना के द्वारा मिला था । ‘ओघनिरयुक्ति ‘ में चौदह पूर्वधर , युगप्रधान आचार्य श्री भद्रबाहुसुरी महाराज ने कहा है कि-
वैयावच्च करने में कभी भी आलस करना नही। गुणवान आत्माओ की वैयावच्च रोज – रोज करो क्योकि बाकी के सारे अनुष्ठानों से बाँधे हुए पुण्य प्रतिपाती है । जबकि वैयावच्च द्वारा बाधा हुआ पुण्य अप्रतिपाती है एक तो गरीबी , बाल अवस्था ओर वहाँ माता पिता का विरह हो तो क्या दशा हो सकती है यह कल्पना भी कितनी भयानक है।
इस बालक को उसके माता खुद के घर ले गये ओर लालन – पालन किया । नंदिषेण ऐसा उसका नाम रखा । नाम चाहे जितना सूंदर हो और संबंधी भी चाहे जितने प्रेमी मीले परंतु भाग्य ही जिसका प्रतिकूल है उसे सुख की संभावना कहाँ से हो सकती है ?
नंदिषेण की यही स्थिति थी। वह समयानुसार जवान बना । जवानी के साथ व्यक्ति के रूप का भी उदय होना चाहिए जबकि यहाँ उल्टी गंगा वह निकली । वह जैसे – जैसे जवान बनता गया , वैसे वैसे कुरूप बनता गया ।
बड़ा पेट , बड़ा सिर और पीले पिले केशकलाप…। टेढ़ा नाक तथा टेढ़े दाँत । टूटे हुए कान , फुगी हुई पंसलिया ओर पिठ के ऊपर व्रण: । जैसे कोई Anitomi ही नहीं । चले तो भी लड़खड़ाता हो ऐसा लगे । बोले तब सामने के व्यक्ति को सुनना पसंद नही आये ।
स्त्रियों तो उसे देखते ही दूर हो जाती थी । इतना कम हो उसी तरह बुद्धि से भी जड । अब क्या बचा ? मामा के घर पर ही नोकरी करने लगा । किसी प्रसंग उस पर नगरवासियो ने आक्षेप किया कि हे मूर्ख , मामा के घर पर घरकाम की नोकरी करता है ! परदेश जा तथा भाग्य की परिक्षा कर। धन एकत्रित करके योग्य स्त्री के साथ शादी कर ।
स्थानांतरितानी भाग्यानी । कभी देश बदलने से भाग्य भी बदल जाते है । नन्दिषेण परदेश जाकर नोकरी ढूढ़ने के लिये तैयार हो गया । उस समय उसकी बुद्धि तथा भाग्य से परिचित उसके मामा ने उसे रोका तथा कहा : क्यो परदेश जा रहा है ? मेरे घर पर ही तू रह ,यही उत्तम है । मुझे सात लडकियाँ है । उनमें से किसी एक के साथ तेरी शादी मैं ही करवा दूँगा।
नंदीशेंण खुश-खुश हो गया । मामा के घर पर ही पड़ा रहा । घरकाम करने लगा। एक बार नंदिषेण को अच्छा वस्त्र पहनाकर उसके मामा ने खुद की सातों पुत्रियों को बताया और पसंदगी करने का सूचन किया ।
वे सातों बहने इस दुर्भागी को देखते ही उसकी तरफ नफरत करने लगी । खुद के पिता को बोल दिया: पिताजी, हम आत्महत्या करने का पसंद कर लेंगे परन्तु इस नंदिषेण को पसंद नही करेंगे ।
नंदिषेण ने खुद की आँखों का ए ऐसा अपमान होते देखा । उसे खूब आघात लगा में दुःख का सागर जैसे उछलने लगा। पुरूष चाहे किसी भी जाति का हो उसकी लायकी चाहे काम- ज्यादा हो, परन्तु शादी के विषय में कन्याओ द्वारा होनेवाला अपमान उसके लिये असहा होता है ।
इस अवसर पर नंदिषेण दुःखगर्भित वैराग्य से वासित बना । उसने विचार किया:इसमें मेरे कर्म का ही दोष है । मामा भी क्या करेंगे ? जहाँ ये मेरी ननिहाल पक्षीय बहने ही मेरा इन्कार करती हो।
उस रात को नन्दिषेण ने मामा का घर छोडा । अकेला निकल पडा। कन्याओं के द्वारा हुए अपमान से तिलमिला उठा वह रत्नपुर नामक शहर में आया । बगीचे में पहुँचा । जहाँ कोई एक यूगल उन्मत्त बनकर क्रिड़ा कर रहा था । नंदिषेण की आँखों में यह दृश्य चढ़ा । जैसे घाव पर नमक पड़ा । उसकी मनोवेदना शिखर पर पहुँची। दुनिया के सब जवान कन्या को प्राप्त करते हैं और में ही अकेला नही । इतना ज्यादा दुर्भाग्य!जिना नही है । इस जीने का कोई अर्थ नही ।
आत्महत्या करने के दृढ निश्चय से वह नगर छोड़कर फिर से जंगल में आया। वहाँ पर उसे ‘सुस्थित’ नामक जैन मुनि के दर्शन हुए । उनके चरणो में वह बेठ गया तथा खुद की कथा कहकर सुनाई । आँखों में से चोधार आँसु बहने लगे।
आत्महत्या का निर्णय सुनकर मुनि के दिल में दया पैदा हुई । मुनि ने खूब मीठे मन से नंदिषेण का प्रतिबोध दिया की दुःख का प्रतिकार आत्महत्या से नही होता है । दुःख का प्रतिकार पापहत्या द्वारा हो सकता हैं।
पत्नी नही मिलने से जीवन को निष्फल क्यों मानता है?जीवन की सफलता स्त्री के संग में नही परन्तु धर्म के सेवन में रही हुई है । धर्म का सेवन संपूर्ण अहिंसा के पालन से संभव बनता है । और वैसी अहिंसा सिर्फ जैन दीक्षा में समाई हुई है इसलिए तू साधुधर्म का स्वीकार कर।
गुरु की वाणी सुनते ही नन्दिषेण के आँसु रुक गये और उसके बाद मन का सन्ताप भी कम होता गया ।
उसने गुरु के पास दीक्षा अंगीकार की। जैसे हजारो दुर्भाग्यो का रामबाण औषध शुरू किया । अब वह नंदिषेणमुनि बन गया । ज्ञान का क्षयोपशम इतनी तीव् नही था इसलिए गुरु ने इस नूतनदिक्षित मुनि का तप में तथा वेयावच्च के मार्ग में विशेष वीर्य लगाने की प्रेरणा की। जो नंदिषेणमुनि को बहुत जंच गई । गुरु के पास अभिग्रह किया कि छठ्ठ के पाराणे छठ्ठ का तप करुगा । पारणे के दिन भी आयम्बिल करूँगा । इतने कठिन अभिग्रह के वे निरन्तर पलने लगे ।
एक तरफ इतना उग्र तप तथा दूसरी तरफ ऊँची वेयावच्च शुरू कर दी। वे रोज ५००साधुओं को भिक्षा लेकर देते थे । खुद के पारणे के दिन भी वेयावच्च का यह अवसर वे छोड़ते नही थे । वेयवच्च पहले उसके बाद पारणा।
सेकड़ो वर्षो तक यह परंपरा चली । नंदिषेण के मन का उत्साह जरा भी धीमा नही पड़ा। गच्छ में उनकी सर्वत्र प्रशंसा होने लगी । इसके बाद इस प्रशंसा का क्षेत्र फैल गया । समस्त जैन संघ में उनकी प्रशंसा होने लगी। हरेक गच्छ में तथा गाँव-गाँव के श्रमणसंघ नंदिषेण का नाम आदरपूर्वक लेने लगे। अजोड वेयावच्चि तरीके की उनकी छाप खड़ी हो गई । कीर्ति फैल गई।
एक बार पहले देवलोक के इंद्र ने खुद की देवसभा में नंदिषेण की स्तुति की कि धन्य है, नंदिषेणमुनि को । संसार मी थे तब उनकी जड़ता तथा अपयश किसी भी तरह से रुक न सके ऐसे दृढ थे । आज यह आत्मा कितने ऊँचे शिखर पर पहुँच गया है। उनकातप का राग!उनकी वेयावच्च की लगन!जैसे नस -नस में वेयवच्च का गुण एकमेक हो गया है।
यह प्रशंसा सुनकर दो देव हिल गये। ईष्या से जल उठे!ऐसी तो कैसी वेयावच्च यह नंदिषेण करता है कि देव भी उसके वेयावच्च गुण को खत्म नही कर सकते । अभी धरती पर उतरकर नंदिषेण को वेयावच्च से पतित करते है। इसके बाद इंद्र महाराजा भी समझेगा की त्यागीओ की ज्यादा प्रशंसा करना ठीक नही।
दो देवो ने आपस में निश्चित किया और वे रत्नपुर शहर में आये ।हरेक प्रशंसा खुद के पीछे थोड़े ईर्ष्यालु को लेकर आती है । और हरेक निंदा खुद के पीछे थोड़े अनुयायी को लेकर आती है । संसार का यह नियम है । यहाँ भी ऐसा ही हुआ । इंद्र के द्वारा होनेवाली नंदिषेण की प्रशंसा ही उनकी परीक्षा का कारण बनी।
एक देव बगीचे में पहुचा । मुनि का रूप लेकर वृक्ष के नीचे बैठा । वृद्ध उम्र है। बहुत जुलाब लग चुके हैं । शरीर तथा वस्त्र भी खराब हो चुके है।
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देव में मुनि का रूप धारण करके नगर में प्रवेश किया। गच्छ की बस्ती में प्रवेश करके नंदिषेण के पास पहुँचा । आज पारणे का दिन था ।पहले पाँच सौ साधुओं की वेयावच्च की। उसके बाद खुद की भिक्षा लाकर नंदिषेण वापरने के लिये बैठे । पहला कंवल हाथ में लिया तभी पहले आगंतुक मुनि ने कहा; अरे नंदिषेण!मेरे गुरु का बहुत जुलाब लग रहा है ,वे बगीचे में हताश बैठे हैं, कोई सँभालनेवाला नही है और तू शांति से वापरने के लिए बैठा है?फिर वेयावच्च तरीके की तेरी ख्याति किसलिये रखी है?
नंदिषेणने कंवल नीचे रख दिया । पात्रो के ऊपर वस्त्र ढाककर वह खड़े हो गए।आगंतुक मुनि को बताया,चलो कहाँ हैं तुम्हारे गुरुदेव ? मुझे उनकी बिमारी की खबर ही नहीं है वर्ना वेयावच्च का यह अवसर नहीं गुमाता । गोचरी की क्या जल्दी है?
वह बगीचे में पहुँचा । नंदिषेण को देखते ही पहले बीमार साधु टूट पडे! अरे! खाली हाथ कैसे आया?जा, पहले पानी ले आ , जिससे मेरी शरीर की तथा वस्त्रो की शुद्धि हो सके । तुझे इतना पता नहीं की अतिसार के मरीज साधु के पास पानी लेकर जाना चाहिये।
मिच्छामि दुक्कड़म……मैं अभी ही पानी वहोरकर लाता हूँ नंदिषेण ने सांत्वना दी। उसके बाद वे पानी वहोरने के लिए निकले । पूरे गांव के भिक्षा योग्य घरो में घूम आये पर कहि भी पानी नही मिला।कहाँ से मिले?देवो ने ही निर्दोष पानी की प्राप्ति में अवरोध कर दिया था। देवो को तो नंदिषेण को नष्ठ देकर वेयावच्च से भ्रष्ट करना था ना?
नंदिषेण तीसरी बार भिक्षाटन के लिए प्रवत्त हुए ।अब नंदिषेण के तप लब्धि का बल बढ़ गया उससे देवो ने किया हुआ अवरोध नष्ठ हो गया । नंदिषेण को पानी मिला पानी लेकर वे बगीचे में पहुँचे ।थोड़ी सी भी घृणा नही की। बीमार साधु के दूषित शरीर को तथा वस्त्रो को स्वच्छ कर दीये। उसके बाद विनंति की कि, हे भगवंत!शहर में पधारे तो आपका इलाज भी हो जायेगा । शरीर बहुत कमजोर पड़ गया है, उसे दवाई की जरूरत है।
तेरी बात तो ठीक है परंतु मैं एक कदम भी चल सकूँ वैसा नही है। मेरा शरीर बहुत क्षीण बन चूका है। तू मुझे उठाकर शहर में ले जाय तो मैं शहर में आ सकता हूँ।
बीमार साधु बोले। ऐसा लाभ कहाँ से? भगवंत मुझें ही यह लाभ दे । इस प्रकार बोलकर नंदिषेण ने व्रद्ध मुनि को उठाते हुऐ जरा भी अहंकार नही आया।
नंदिषेण उपाश्रय की तरफ आ रहे है तब रास्ते में बीमार साधु ने फिर से बहुत जुलाब किया। जुलाब से नंदिषेण का संपूर्ण शरीर खराब हो गया । जुलाब अत्यंत दुर्गधी था इससे सर्वत्र घिनोना वातावरण हो गया ऐसा होते हुये भी नंदिषेण मुनि ने वृद्ध साधु के प्रति अप्रीति नही की।
एक तरफ वृद्ध मुनि का भार सहन कर रहे है तथा दूसरी तरफ गंदगी भरे हुये अंग बी दुर्गंध सहन कर रहे हैं।इस स्थिति में भी नंदिषेण मुनि को अविचल देखा इसलिए वृद्ध मुनि ने खुद के शरीर का वजन बढ़ाना शुरू किया । नंदिषेण पर क्षमता की अपेक्षा ज्यादा भार उतरता गया इससे उनके पैर थोड़े टेढ़े-मेढ़े पड़ने लगे।
तभी यह वृद्धमुनि सुनते ही कान में कीड़ा पड़े ऐसा कड़वा वचन सुनाने लगे। तू धिक्कार के पात्र है। व्यर्थ ‘वैयावच्ची’ की प्रसिद्धि रखी है । उतावला चलता है। चाहकर मुझे परेशान करता है जिससे मैं उतर जाऊँ।……
बहुत अपमान किया वह भी गली के बीचोबीच फिर भी नंदिषेण मुनि प्रतिकार तो नही करते बल्कि शुभ परिणामों में आरूढ़ बनकर विचार करते है की यह मुनि किस तरह से स्वस्थ बनेंगे?बहुत ही बीमार हो गए हैं इससे समता नही रख सकते । में कमनसीब हूँ कि, मेरी चाल के कारण उन्हें तकलीफ हो रही है। किस तरह उन्हें शाता पहुँचाऊँ?
ऐसे, एक के बाद एक उपद्रव किया । तिरस्कार की परंपरा कड़ी कर दी।क्रमानुसार कष्ट दिये फिर भी नंदिषेणमुनि वेयावच्च के परिणाम से पतित नहीं हुए तब आगन्तुक दोनों देव झुक गये । मुनि के प्रति उन्हें हार्दिक आदर प्रकट हुआ। उन्होंने खुद की देवमाया का संहरण किया तथा दिव्य रूप धारण करके प्रकट हुए।
नंदिषेण के मस्तक पर पुष्पवृष्टि की।
उनके चरणो में प्रणाम किया तथा प्रशंसा करने लगे की , धन्य है भगवंत आपको ……. जैसी इंद्र महाराजा ने स्तुति की वैसे ही सद्भुत गुण आपमें है । आपके वेयावच्च गुण को हम देव भी नष्ट कर सके वैसा नही है। आपने क्रोध को जीता है । जैसा इंद्र के पास सुना वैसा ही यंहा देखा है । हमारी भूल को माफ़ करना ।
वे चले गए । अब नही दिखते कोई वृद्ध साधु , उनके शिष्य या मल की दुर्गंध । नंदिशेन मुनि के समग्र शरीर पर गोशीर्ष चन्दन का विलेपन हुआ है और उसमें से उत्कट सुगंध फ़ैल रही है ।वस्त्रो में एक भी दाग नही रहा ।
नंदिशेन मुनि की ऐसी देवो ने की हुई भक्ति देखकर सब उनकी विशेष प्रशंसा करने लगे । इसके बाद भी नंदिशेन मुनि ने वेयावच्च का प्रेम नही छोड़ा । पुरे बारह हजार वर्ष तक चरित्र का पालन किया । अंत तक छट के पारणे छट करते रहे तथा वेयावच्च की ज्योति जलाई ।
अब शरीर में संयम की साधना का खास बल नही है ऐसा लगा तब उन्होंने गुर्वज्ञापूर्वक अनशन स्वीकारा । दर्भ ( एक प्रकार का त्रण ) के संथारे में चारो आहार के त्यागपूर्वक बैठ गए । शुभध्यान की मस्ती का अनुभव करते है ।
कोई वीर योद्धा विजय के नजदीक पहुँचकर एकाएक लड़खड़ा खाये तथा शत्रु के वध का मौका गुमा दे बस! नंदिशेन की भी यही हालत हुई हजारो वर्ष का संयम तथा बाह्य – अभ्यंतर तप का फल उसके पास था । अब एक छलांग मोक्ष के सिंहासन पर चढ़ा देने के लिए शक्तिमान थी ।पर काश! वे डगमगा गये । संसारी अवस्था में कन्याए उनका जो अपमान करती उसकी याद आ गयी । मन में फिर से मोह की गांठ में बंध गया । उन्होंने नियाणा किया : इस भव में जो चरित्र पाला , उस दरम्यान द्रव्य – भाव तप किया उसके प्रभाव से आनेवाले भव में ‘स्त्री वल्लभ’ बनूँ ।
नियाणा से छूटे बिना वे म्रत्यु को प्राप्त हुए । आठवें देवलोक में पहुंचे । वँहा से निकलकर अंधकवर्ष्टि राजा के सब से छोटे दसवे नम्बर के पुत्र के रूप में जन्मे, वसुदेव बने
आधारग्रंथ : उपदेशमाला पर उपलब्ध टिकाये ।