पूर्व भव में इस देव का नाम तिष्यक था । जिससे भगवतीसूत्र में तिष्यकदेव के नाम से वह पहचाना गया है। पहले देवलोक के इंद्र का नाम है सौधर्मेन्द्र । उसका यह समानिक देव है । समानिक देव यानि इंद्र जैसा ही वैभव ,शक्ति तथा आयुष्य धारण करनेवाला देव।
सामान्य इंसान कल्पना न कर सके ऐसी विशाल सम्रद्धि का मालिक यह तिष्यक देव है ।ऐसी सम्रद्धि के मूल में उसने पिछले भव में स्वीकार किया हुआ महावीरप्रभु का शिष्यत्व रहा हुआ है ।
पिछले भव में यह तिष्यक देव तिष्यक नाम का सज्जन था। महावीर की देशना सुनकर वह भव से विरक्त बन गया । प्रभु के करकमलों द्वारा उसने रजोहरण लिया तथा प्रभु का शिष्यत्व स्वीकार करके आत्मा को धन्य बनाया ।
बहुत ही विनयी तथा स्वभाव से सरल परिणामी इस मुनिने जो साधना की, वह सिर झुका दे ऐसी है। दिक्षा ली उसी दिन उसने छट्ठ के पारणे छट्ठ शुरू किया । उसके साथ कठोर क्रिया तथा निरंतर वैयावच्च तो निश्चित ही की । पूरे आठ वर्ष तक यह परंपरा चली । इतने समय मे शरीर को इतना निचोड़ दिया कि जैसे वह लकड़े का ढाँचा लगने लगा।
संयमपालन के लिए विशेष सामर्थ्य रहा नही है ऐंसा प्रतिभासित होने पर तिष्यक मुनिने प्रभु के पास अनशन की आज्ञा प्राप्त की । प्रभु ने आज्ञा दी । अनशन करने के पहले इस मुनिराज ने प्रभु के पास खुद के जीवन के दोषों की विस्तृत आलोचना की । आत्मा को पाप के भार से हलका बनाया । उसके बाद अनशन का स्वीकार किया । एक महीने तक उसको बेदाग वहन किया ।
अंत मे, समाधिपूर्वक मृत्यु को प्राप्त हुए तथा तिष्यकदेव के रूप में उत्पन्न हुए ।
-आधारग्रंथ :भगवई सुंत।