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शत्रुघ्न का पूर्वजन्म

राम के छोटे भाई का नाम शत्रुघ्न । राम के सेनापति का नाम कृतांतवदन । दोनो राम के बहुत प्रितिपात्र वैसे ही विश्वाशु । राम का अयोध्या में पुनरागमन हुआ उसके बाद शत्रुघ्न ने मथुरा पर आक्रमण किया । किसके साथ युद्ध करने की हिम्मत लक्ष्मण भी नही करते थे ऐसे मथुरापति , मथुराजा का उसने शिरच्छेद किया । उसके बाद राम ने शत्रुघ्न को मथुरा का राजा बनाया।

कोई भी समझ नही सकता था कि शत्रुघ्न को मथुरा के प्रति इतना लगाव क्यो है तथा कृतांतवदन को शत्रुघ्न के प्रति इतना स्नेह क्यो रहता है ?

देशभूषण तथा कुलभूषण नाम ज्ञानी मुनिवरों ने इस जिज्ञासा का खुलासा किया । जब रामचन्द्रजी ने ऊपर का प्रश्न उनको पुछा तब उन्होंने हुई है और एक बार तो वे मथुरा के राजा भी बने है । इससे मथुरा के राज्य की तरफ शत्रुघ्न को इतना लगाव है।

इस कृतांतवदन की आत्मा ने पिछले जन्म में शत्रुघ्न के साथ ही दीक्षा ली थी तथा दीक्षा के प्रभाव से वे दोनों पाँचवे देवलोक में उतपन्न हुए थे । वहा भी मित्रदेव के रूप में असख्यकाल तक जुड़े रहने से उनके परस्पर दृढ़ स्नेह था।

प्रभु , कृपा करो , हमारा पिछला जन्म हमे बताओ जन्म हमे बताओ । शत्रुघ्न ने विनती की । मुनि ने स्वीकारी । तू मथुरा में श्रीधर नामक पुरोहित था । एक बार राजभवन के नीचे से गुजर रहा था तब नगर की महारानी ललिता ने तुझे देखा । तेरे सुंदर रूप में वह आसक्त बनी । सेवक द्वारा तुझे राजभवन में बुलवाया । तेरी पास वह भोगप्रार्थना करने लगी । तू कुछ सोचे इसके पहले तो वहा राजा आ गये । इससे रानी बहुत डर गई।

खुद के दुष्चरित्र को छुपाने के लिये उसने तुझे सूली पर चढ़ाया । बचाओ-बचाओ – यह चोर है – चखने लगी । राजा राजा दौड़ते – दौड़ते दाखिल हुए । तुझे
पकड़ लिया । और सच मे ही फाँसी की सजा दे दी।

राजसेवक तुझे वधस्थान की तरफ़ ली जा रहे थे । तूने मन मे संकल्प किया कि यही बच जाऊँगा तो जरूर दीक्षा लूंगा ।

संयम तो आत्मा को तारता ही है । सयंम का मनोरथ भी आत्मा को तारता है । तूने जैसे ही संयम का मनोरथ किया वही तेरा उग्र पुण्यकर्म उदय में आया । कोई कल्याण नाम के मुनि वहा आ गये । उन्होंने सत्य प्रकाशन किया तथा तुझे छुड़ाया।

आफत में से जैसे ही तू मुक्त हुआ , तुरन्त ही तूने दीक्षा ही स्वीकार ली । घोर तप करके तू देवलोक में उत्पन्न हुआ । वहा से म्रत्यु पाकर दुबारा इसी मथुरानगरी में चन्द्रप्रभराजा का पुत्र बना । अचल ऐसा तेरा नाम पड़ा । तू सबसे छोटा पुत्र था इसलिए राजा को सबसे प्रिय हो गया । तेरे से बड़े तेरे आठ भाई थे । वे ऐसी ईर्ष्या से सुलग उठे की पिता को तो यही प्रिय लगता है इसलिए राज्य का वारिस इसे ही बनाया जाएगा । हमे कुछ नही मिलेगा ।

काश ! वे लोग तेरी हत्या करने के लिए तैयार हो गये । इसके लिए तरह – तरह के पैतरे रचने लगे । मंत्रियों द्वारा यह खबर तुझे मिली तब तुझे राजकाज छोड़कर अकेले भागना पड़ा।

तू रोता मुश्किल में पड़ा हुआ जंगल मे दौड़ा । जंगल की झाड़ियो केसी होती है ? तीक्ष्ण काटो से भरी हुई झाड़ियो में तू कभी चला हुआ नही था । थोडासा चलते समय ही नुकीला काटा तेरे पेर में अंदर तक घुस गया। तो फस गया।

तेरा पुण्योदय अब तक जाग्रत था इससे कोई ‘अंक’ नामक लकड़हारा वहाँ से जा रहा था। उसने तेरा कांटा कुशलता से बाहर निकाला तथा तुझे आनन्दित (प्रसन्न) किया। तूने अंक को सूचना दी : जब तू सुने कि मथुरा के सिंहासन पर अचल बैठा है तब मेरे पास आना। तेरे उपकार का बदला जरूर चुकाऊँगा।वनवास को तूने आगे बढ़ाया । एक बार कौशाम्बी नगरी में प्रवेश किया । वहाँ किसी कलाचार्य के पास नगर का राजा इंद्रदत्त विशिष्ट कोटि की धनुष्यकला सिख रहा था । तूने वहाँ जाकर तेरा धनुष्य चातुर्य बताया इंद्रदत्त तो स्तब्ध रह गया । उसनव तत्काल खुद की राजकुमारी दत्ता का तेरे साथ विवाह कर दिया तथा तुझे बहुत धन दिया ।

अब तेरा पुण्योदय बलवान बन रहा था । तूने विशाल सेना इकट्ठी की । कितने ही देशो पर विजय प्राप्त की । उसके बाद मथुरा पर हमला किया । तेरे बड़े आठ भाई तेरे सामने युद्ध के लिए आ गए । आठो भाइयो को तूने अकेले हराया , बंदिवान बना दिया ।

यह समाचार चंद्रप्रभराजा को मिला । उसका क्रोध आसमान पर पहुंचा ।उसने मंत्री सेनापति के साथ विशाल सेना तेरे सामने भेजी । देखते ही मंत्रियो ने तुझे पहचान लिया । उन्होंने युद्ध नही किया तथा तेरे पिता राजा को सच्ची खबर पहुचाई ।

पिता का तू लाडला था ना? उन्होंने महोत्सवपूर्वक तेरा नगर प्रवेश करवाया ।तेरा राज्याभिषेक किया तथा तेरे आठ आठ भाइयो को देश बाहर जाने की आज्ञा दी । इस समय तुझे दया आई । तूने याचना करके तेरे भाइयो को अभयदान दिलाया ।

आफत के समय तुझे मदद करने वाले उस अंक को बुलाया । उसे श्रवस्तिनगरी का राजा बनाया । तुम्हारे बिच में धनिष्ट मित्रता हो गयी ।

अंत में तुम दोनों वैराग्य पा गये । आचार्य समुद्रसूरी के पास साथ में दीक्षा ली । अप्रमत्त रीति से उसका पालन किया । क्रमशः दोनों कालधर्म पाकर पाँचवे देवलोक में मित्रदेव बने ।
वहाँ से मरकर तू शत्रुध्न बना तथा तेरा मित्र अंकराज क्रतांत वदन सेनापति बना । श्रीधर पुरोहित तरीके तथा अचलराज तरीके से इस मथुरा के साथ तेरा सम्बन्ध रहा हुआ है । जो अब तक तुझे प्रेरणा देता है पिछले दो -दो भवो में तूने संयम पाला है इसका यह फल है कि जिस मथुरा को जितने की आशा भी नही कर सकते उसे तूने जित लिया ।

मुनिवर रुक गए –
पर्षदा के अंतरंग परिणाम तब ऊँचे चढ़े ।

शत्रुध्न तथा कृतांतवदन की पलके आँसुओ से भीग गयी ।

आधारग्रंथ : त्रि.श.पु.(पद्य)

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