रामचंद्रजी के पुत्र तथा सती सीता के लाडले इन पुण्यशालीओ को कौन नही पहचानता? उसी भव में मोक्षगामी इन आत्माओं के नाम क्रमशः अनङ्ग लवण तथा मदनांकुश थे, फिर भी लव तथा कुश इन नामो से वे प्रसिद्ध पाये है।
एक तरफ रामचंद्रजी का जीवन संघर्षो से बारबार झुझता हुआ दिखता है तथा दूसरी तरफ उनके इन पुत्रो के जीवन में मुसीबत की छाया भी नही दिखती है। यह भाग्य , वह वैभव तथा उसके बाद का निर्विध्न आत्मिक उत्थान उन्हें सुपात्रदान के सामथ्य के कारण मिला था।
उनका यह छट्ठा भव था। पहेले भव में भी लव तथा कुश सगे भाई थे। उनके नाम वसुनंद तथा सुनन्द थे । वामदेव ब्राह्णण तथा शामला माता के ये पुत्र कांकदीगरी के निवासी थे । एक बार मासखमण के तपस्वी कोई जैन मुनि उनके घर पर गोचरी के लिए पधारे । दोनों भाइयों के ख़ुशी की सीमा न रही । बहुत आदर के साथ उन्होंने मुनि को गोचरी वाहोराई । इसके बाद मुनिराज के पवित्र आचारो की घोर तप केई , उत्तम धर्म की अनुमोदना की । हमे ऐसे त्यागी को वहोराने का लाभ मिला। हम धन्य बन गये….. उनका मन कह रहा था ।
सुपात्रदान की इस अनुमोदना के कारण उनकी आत्मा में बोधिबीज बोया गया । इससे उन्होंने बहुत ही शुभ कर्म बाँधा। वहाँ से मृत्यु पाकर वे दोनों युगलिक मनुष्य के रूप में पैदा हुऐ । वहाँ पर भी निर्बाध सुख का अनुभव किया ।युगलिक का भव पूरा हुआ और पहले देवलोक में मित्रदेव के रूप में उत्पन्न हुए। चौथे भव में फिर से कांकदी नगरी में आये । वामदेव राजा के पुत्र के रूप में पैदा हुए । क्रमानुसार शुभंकर तथा प्रियंकर एसा नाम पडा । जवान हुऐ तब दोनों को पिता की तरफ से अलग-अलग राज्य मिले । लंबे समय तक राज्य सुख भोगा। किसी समय सदगुरु की वाणी सुनी तथा दोनों को वैराग्य हो गया । दोनों ने एक साथ ही संयम स्वीकारा । शुद्धतापूर्वक पालन भी किया इसके द्वारा अभूतपूर्व पूण्य का संग्रह किया तथा अशुभ कर्मो को खत्म किया। अंत के मृत्यु पाकर दोनों मुनि ग्रेवेयक में उत्पन्न हुए और वहाँ से निकलकर सितादेवी के नंदन बने ।
– आधारग्रंथ :त्रि.श.पु.(पघ)।