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अमरकुमार-सुरसुंदरी का पूर्व जन्म

सुरसुंदरी के जीवन का सार दो बातों में समा जाता है: एक साधु3 की तरफ की हुई नफरत राजरानी को भी मगरमच्छ में पेट में डाल सकती है । दूसरा,संयमी को चरित्र से चलित करने का थोड़ा भी प्रयत्न भरजवानी की उमर में विरह की आग में सुलगा सकता है। ऐसी आग जो बहुत सारे सुखों को भस्मीभूत क्र दे।

राजरानी बनने के बाद सुरसुंदरी को बारह-बारह वर्षों तक पति का विरह ष्ण पड़ा। इतना कम हो वैसा उसमे कितने समय तक तो मगरमच्छ के पेट में रहकर जीवन बिताना पड़ा।
जवानी में सुलगी हुई दुःख की यह आग उसके पूर्वकृत पापकर्म के ईंधन में से पैदा हुई थी । उसके पूर्वभव की तरफ थोड़ा दृष्टिपात करते है।

सुदर्शन नगर में सुरराज नामक राजा था । राजा को खुद की रानी के प्रति अटूट प्रेम था।
राजा खुद की प्रियतमा को लेकर एक दिन वनक्रीड़ा के लिए निकले ।

राजा के साथ विशाल काफिला था। सभी वनप्रदेश में पहुँचे । एक योग्य जगह की राजा ने पसंदगी जाहिर की इसलिये राजा के सेवको ने वहाँ पड़ाव डाला। सैनिकोंने योग्य जगह पर जाकर position संभाल ली। कितने ही सैनिकोंने ने भोजन की तैयारी की। मंडप डालने शुरू किये।
राजा तथा रानी अकेले वनभ्रमण करने थोडे दूर गये। वहाँ एक मुनिराज घने वृक्ष की छाव में काऊसग्ग क्र रहे थे। तेजस्वी मुख तथा नोजवान शरीर परंतु वस्त्र बहुत मैले। मुनि को देखते ही देखते ही राजा का ह्रदय झुक गया। अहोभाव से ओतप्रोत वे मुनि चरणों में झुक गये। इस तरफ रानी रेवती अक्कड खडी रही। उसे मुनि के मैले कपड़े देखकर उनकी तरफ नफरत ( तिरस्कार) जागा था।
रेवती को समझते हुये राजा बोले:प्रिये! धन्य है इस संयमी को। इतनी जवानी में तलवार को चवाने का सत्व वे बता रहे हैं। उत्तम रूप तथा युवा उम्र होते हुए भी उनके ध्यान की एकाग्रता तो देखो । आज अपना दिन सफल बन गया ।

नाथ आपकी बात सच है ।परंतु इनके जैसो को भी विचलित करने का काम हमारे लिए सरल है।
रानी खुद की कामकला का अभिमान बताया।

प्रिये!देवलोक की रंभा भी इस मुनि को चलित नही कर सकती । तेरी क्या गुंजाईश है ?
हाँजी,हाँजी, मैं अभी ही मेरी गुंजाईश दिखाती हूँ। रानी ने अहं धारण किया तथा राजा की नजर के सामने मुनि के समक्ष गितगान शुरू किया। नाच-गान भी किये तथा साथ-साथ ऐसी कामकला बताने लगी की कमजोर सत्व का संयमी जरूर विचलित हो जाये।

काश! पर यह तो pure gold थे। बिहत्तर मिनिट तक रानी प्रयास करती रही पर जैसे पत्थर पर पानी । अनुकूल उपसर्गों का मुनिराज पर कुछ भी असर न पडा।

अंत में रानी ने साधु का संघट्टा करके हाथ में से ओघा – मुहपत्ति छीन लिया। उन्हें उलाहना देने लगी । यह सब बराबर पाँच घंटों तक चला ।अंत में राजा बीच में पडे।रानी को
Order किया बस कर तेरा तूफान ; अब तू हार गई है। रानी एकदम शरमा गई।
उसी समय मुनिराज ने काऊसग्ग पूरा किया।

राजा ने उनके चरणों में झुककर माफी माँगी। रानी राजा के पीछे खड़ी हो गई।दोनों आत्माओ की अदभुत योग्यता जानकर मुनिराज ने उन्हें धर्म सुनाया। प्रतिबोध किया।राजा ने वापिस मुनि को खमाया तथा गोचरी का लाभ देने की विनंति की।

मुनिराज गोचरी के लिए पधारे । वही रानी की जिसने मुनि को परेशान किया था। उसने बहुत हर्षोल्लासपूर्वक भिक्षा वहोराकर अनंत पूण्य की राशि इकट्टी की।
खैर!प्रतिबोध पाने के बाद भी रानी खुद ने की हुई मुनि की आशातना-तिरस्कार का प्रायश्चित करना भूल गई।

कालक्रमसे राजा-रानी की मौत हुई। दोनों देवलोक में पैदा हुये। देवी – देवता बने।देवभव पूर्ण किया तथा यही सुरराज अमरकुमार बना तथा यही रेवती सुरसुंदरी बनी।

अमरकुमार के साथ शादी करने के बाद सुरसुंदरी को भरी जवानी में बारह वर्षों तक पति का वियोग हुआ। उसका कारण रेवती के भव में उसने मुनिराज को सयंम से चलित करने का जो प्रयत्न किया वह था ।मगरमच्छ ने कुछ समय तक उसे निगलकर अपने पेट में रखा उसका कारण किया किया हुआ मुनि का तिरस्कार था।

– संदर्भ: पं. वीर विजयजी कृत ‘सुरसुंदरीनो रास’।

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