भवनपति देवों के एक समूह का नाम ‘अब्धिकुमारदेव ‘ है । इस देवनिकाय में लाखों देवता होते है, उन सबको अब्धिकुमार देव के रूप में भी पहचान सकते है । जैसे भारत में भले ही १२० करोड़ नागरिक रहते हों , उन सबके स्वतंत्र नाम भी है , तो भी उन सबको भारतीय कह सकते हैं।
ऐसे एक अब्धिकुमार की यहाँ बात करनी है। यह देवता पिछले जन्म में पशुयोनि में जन्मा हुआ था, उसमे भी बंदर योनि में शरारतभरा जीवन व्यतीत कर रहा था । लंका के आसपास के वृक्ष ।, जंगली वृक्ष तथा समुद्र किनारा उसकी कर्मभूमि ।
बंदर के जीवन में विवेक भी कैसा तथा विवेकरहित जीवन में संस्कार तथा सभ्यता कैसे हो सकती है?
इस समय तड़ितकेश नामक विद्याधर लंका का राज्य संभाल रहा था । तडितकेश यानि रावण के परदादा हैं । श्री चंद्रा नामकी खुद की प्रियतमा के साथ वह बगीचे में पहुँचा । रानी वृक्ष के नीचे बैठी तथा राजा ने बगीचे में सफर शुरू किया।
योगानुयोग रानी बैठी थी उसी वृक्ष पर यह बंदर आया। रानी को देखकर वह कामातुर बन गया। संज्ञी ल
पंचेंद्रिय प्राणी था ना? मैथुन वगैरह संज्ञाएँ स्वाभाविक रूप से सताति हैं।
रानी को अकेली बैठी हुई देखी इसलिये वह नीचे आया। तथा रानी के शरीर कर नाखून चूभाये । रानी ने हल्ला मचाया । राजा दौडता आया । उसने धनिष्य खिंची । एक ही तीर से उस बंदर को अधमरा कर दिया । । अब वह बंदर का जीवित नहीं बचेगा यह निश्चित ही गया क्योंकि इतने खराब तरीके से वह घायल हुआ था।
जैसे-तैसे लडखडाते हुये वह नजदीक के जंगल में पहुँचा। या अब आगे बढ़ने की ताकात न रही इसलिये वह सामने ही खडे हुये मुनिवर के चरणो में लुढ़क गया ।
साधु यानि दया का महासागर। मुनिराजने काऊसग्ग पूरा किया। बंदर को कृपानयन से सींचा । नवकार सुनाया। इससे दुध्र्यान से जलते हुये उसके मन में बहुत आनंद पैदा हुआ। थोडे समय में मृत्यु पाकर वह बंदर अब्धिकुमार देव बना।
– आधारग्रंथ त्रि. श. पु. ( पघ )