पर्वत में से झरने के रूप में निकल रही धारा नदी में परिवर्तित हो गई और बहुत दूर तक नदी में बहती रही और आगे बढ़ती रही, सतत प्रवाहित नदी मे एक खुद की साथ धारा बह रही उस सहेली से कहा- मै तो इस सतत गतिशील जीवन से कंटाल गयी हूँ सतत बहते रहना एक श्रण का भी विराम नही मिलता है, ऐसा जीवन किस काम का ! अब आगे बढ़ने की मेरी इच्छा नही है। अब मैंने नक्की कर लिया है की अब मै आगे नही जाऊँगी। ये आम का पेड़ इतना सुन्दर है इसकी शीतल कुंज मुझे प्रदान करता है बस अब मैंने निर्णय कर लिया है की मै इस आम के पेड़ के निचे ही विश्राम करुँगी।
नदी की थकी हुइ बहती धारा खुद के निर्णय से वह वही पर रुक गयी। और आम के पेड़ की छाया में खुद के जल का सिंचन करने लगी।
उसके साथ बहती अन्य धाराओ उसकी सखी सहेली थी। उन सभी ने उसको साथ आने के लिए समझाया ! दूसरी धारा ने कहा सखी नासमाज मत कर सतत बहना अपना गुण है और धर्म है तू। ये बात क्यों भूल जाती है कि खुद के जल की पावनता स्वच्छता, स्वस्तथा गतिशीलता में ही है जो तू बहती अटक गयी तो तेरा जीवन अकर्मण्यता में आ जायेगा और तेरा जीवन समाप्त हो जायेगा मेरा कहना है की तू हमारे साथ चल पर कोई जवाब नही दिया।
पहली धारा ने ये सब कुछ सुना पर उसे न सुना कर दिया बहता रहने का धर्म छोड़ कर वो आलसी बन गयी। आलस के कारन वो अकर्मी बन गयी और वही पर रुक गयी। उसके जल ने एक सरोवर का रूप धारण किया अब गाँव के लोग उस सरोवर में जल क्रीड़ा करते और अपना यापन करते पर कुछ दिन बीतने के बाद जल का एक जगह रहने से उसमे कपडे धोते पर पानी इतना गंध मारने लगा तो गाँव वालो ने आना बंध कर दिया। पहले जो धारा बहती थी वो सरोवर में परिवर्तित हो गयी। फिर गंदे पानी मे उसकी अकर्मण्यता ने बहते रहने का स्वभाब छोड़ दिया।
जीवन के अंदर अपने को सतत् उद्यमी रहना चाहिए, काम करते आगे बढ़ना चाहिये। और कभी अपने गुण स्वभाव नही छोड़ना चाहिए और गतव्य को और बढ़ाते रहना चाहिए।
जीवन में अगर हम ने हमारा प्रत्यनशील रहने का स्वभाव छोड़ा तो हम भी उस आलसी धारा की तरह हमारे हाथो से हमारा अंत कर बैठेंगे।