अंजनसुन्दरी ऐसी महासती थी जिसके अस्तित्व के साथ अन्याय हो जाने के कारण पति पवनजय ने अग्निस्नान क्र दिया ।
खुद के सतीत्व की रक्षा के लिए आग में आत्महत्या करने वाली सतियां तो बहुत हो चुकी है परंतु जिनके सतीत्व के लिए पति ने आग में आत्महत्या की हो ऐसी सती एक मात्र अंजनसुन्दरी है । लग्न के पल से लगाकर बाइस वर्षो तक वह पति विरह की चक्की में पिसती रही , उसके बाद सासु केतुमति ने उसे कुलटा कहकर कलंकित किया , पति की अनुपस्थिति में देशनिकाले की सजा भुगतने के लिए अकेली पैदल निकलना पड़ा , अरे पिता महेंद्रराज ने भी आँसु बहाती इस सती को आश्रय नही दिया तथा उसे जंगल में दर दर भटकना पड़ा । अंत में , हनुमान के जन्म के बाद पति पवनजय के साथ पुनर्मिलन हुआ ।
दुखो की इस असह्य परम्परा का कारण अंजनसुनदरी के पिछले जन्म में छुपा हुआ है ।
कनकपुर शहर के राजा का नाम कानाक्रथ था । उसे दो पत्नीयां । बड़ी पत्नी का नाम कांकोदारी तथा छोटी पत्नी का नाम लक्ष्मीवती । लक्ष्मीवती परम श्राविका थी , जिंभक्त थी । उसने खुद के आवास में घर मंदिर बनाया । सम्पूर्ण सोने का । उसने अरिहंत की रत्नमय प्रतिमा बिराजमान की । रोज त्रिकाल पूजा करने लगी । पर्व के दिनों में उत्सव मनाने लगी । रोज अंगरचना करवाने लगी । इससे इस दूसरी पटरानी की प्रशंसा ही प्रशंसा शुरू हो गयी ।
राजा की वह अधिक प्रिय बनी । राजमहल में उसका आदर बढ़ने लगा । प्रजा में भी उसकी प्रतिष्ठा बढ़ी । यह सब बड़ी रानी कनकोदारी से कैसे भी सहन नही होता था । उसे खुद की सौतन के लिए बहुत ईर्ष्या होने लगी । रात दिन ईर्ष्या से सुलगती वह क्रश होती गयी ।
नीतिशास्त्रों में कहा है : जिस स्त्री में अट्ठानवे गुण होते है वहाँ भी दो दुर्गुण तो जरूर होते ही है । एक तो ईर्ष्या तथा दूसरा माया।
कानकोदरी की ईर्ष्या अब सिमा से बाहर जाने लगी । उसने निश्चय किया किसी भी कीमत पर लक्ष्मीवती की प्रशंसा को मुझे रोकना पड़ेगा । इसके लिए मुझे जो करना पड़े वह कर लेने की मेरी तयारी है । अगर लक्ष्मीवती की तरफ राजा इसी तरह झुकता रहेगा तो बुढ़ापे में मेरे सामने देखेगा भी नही ।
क्या करूँ ? कोई उपाय नही मिलता ।इसी तरह कितने ही दिन व्यतीत करती है वही एक अपवित्र पल में उसे अधम विचार जागा : यह जिनप्रतिमा आयी है उसके बाद ही लक्ष्मीवती का बोलबाला बढ़ गया है तथा मेरी उपेक्षा शुरू हुई है । अगर जिनप्रतिमा का ही नाश कर दू तो न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी ।
दुष्टता की यह आखिरी कक्षा थी । वहां तक नीचे गिरकर भी कानकोदरी सन्तुष्ट नही होती , हिचकिचाहट तो नही , उपर से उसके तन बदन पर मुस्कराहट छा गयी ।
पापी विचार का उसने अमल भी किया । खुद की विश्वासु दासी का उसे इस अ कार्य में सहयोग मिला । कोई एकांत समय में कनंदोदरी तथा उसकी दासी ने लक्ष्मीवती के राजमहल में से जिन प्रतिमा का अपहरण किया । उसके बाद प्रतिमा को टोकरी में ढककर वे दोनों शहर के बाहर गयी । शहर के बाहर कचरे का मैदान था वहा पहुंची । जिनप्रतिमा को कचरे के मैदान में फेंक दिया । इस क्षण वे मन में गर्व करती हुई चली की हाश , मेरी सौतन का उत्कर्ष आज से बंद हो जायेगा । कनकोदरी को कहा पता था कि उसने खुद का पहाड़ जैसा अपकर्ष निश्चित कर लिया है , इस जिनप्रतिमा की आशतना करके । उसने आज प्रभुप्रतिमा को कचरे के ढेर में फेंका , यह पाप आने वाले जन्म में उसे वेदनाओं की गर्ता में फेकने वाला है ।
कनकोदरी की दासी भी खुद की स्वामिनी की पापलीला को रोकती नही , रोकती तो नही उल्टा समर्थन दे रही है ।
वे दोनों जल्दी शहर में वापिस लौटने लगे । उसी क्षण कहि किसी के नज़र न आये ऐसे कोने में से चिल्लाने की आवाज़ आई , अरे! कहा जा रही हो ? कितना भयानक पाप क्र रही हो ? मरकर कहा जाओगी इसकी कल्पना है ? खड़े रहो! खड़े रहो!
कनकोदरी तो सिर से पैर तक काप गयी । उसकी दासी का भी यही हाल हुआ । दोनों के शरीर धरतीकंप के समय व्रक्ष काँपते है उसी तरह बराबर काँपने लगे ।
वहाँ तो नजदीक की झाड़ियों की किसी डाली पर से जयश्री नामक साध्वी जी बाहर निकले । कार्यवश जंगल तरफ गये हुए इन साध्वी जी की नज़र में कनकोदरी का घोर पाप चढ़ गया था । उन्होंने संपूर्ण करुणा बुद्धि से चिल्ला कर ऐसा उपालम्भ दिया । उनकी आंतडी हल्का गयी थी की कितना अघोर पाप! दुर्बुद्धि की कैसी पराकष्ठा! शक्ति पहुचे तो इन पापिनियो को पाप के मार्ग से वापिस लौटा दू । उनके दिल में पश्चाताप पैदा करूँ । उसके बाद आलोचना करवाऊ । जिनप्रतिमा की भी रक्षा करवाऊ ।
जयश्री साध्वीजी इस तरह का विचार करते हुए वहाँ आ गए । पहले दोनों पर कठोरता से भरे हुए शब्द बाण बरसाए , बाद में जब महसूस हुआ की इन दोनों के ऊपर खुद की धाक पैदा हो चुकी है तब प्रतिमा की आशतना के करुण विपाक (फल) उन्हें समझाए तथा बताया कि अगर यहाँ तुम्हे धर्म पसन्द नही आता हो तो भी विपको से तो डरो , कनकोदरी की आँखों से टपटप आँसु बहने लगे । पाप के विपाक की बात सुनकर वह सच में डर गई थी । स्त्री तथा बालक पाप के विपाक की बाते सुनकर पाप करने से जरूर रुक जाते है । भले ही अन्य टैरिके से वे पाप से न भी अटकते हो । दासी की भी यही हालत थी ।
साध्वीजी के उपदेश से जिनप्रतिमा को कचरे के ढेर में से वापिस बाहर निकाला । पुन यथास्थान पर विराजमान किया । साध्वीजी के उपदेश से उन दोनों स्त्रियों ने खुद के पाप की आलोचना भी की । उसके बाद सम्यक्त्व स्वीकारा । जिंदगीभर जिंभक्ति की ।
कनकोदरी मरकर अंजनसुन्दरी बनी । वह दासी अंजना की सहेली वसन्ततिलका बनी । बाइस घड़ी के लिए जिनप्रतिमा को कचरे में रखी थी उसके फल के रूप में बाइस वर्ष तक पति का वियोग सहन करना पड़ा । वनवास तथा कलंक स्वीकारना पड़ा ।
– संदर्भ ग्रन्थ : त्रि. श. पु. च. 7 वां पर्व