दुसरो का उपहास तथा उपेक्षा करने की वृति वैर का कैसा दावानल सुलगा देती है यह हमें यहाँ देखने को मिलता है। महाराजा श्रेणिक तथा उनके पुत्र कोणिक के पिछले जन्म की यह कथा है।
भरतक्षेत्र का वसंतपुरनगर। जितशत्रु राजा वहाँ राज्य करता था। अमरसुन्दरी नामकी उनकी पटरानी सचमुच देवकन्या जैसी सुंदरता धरती थी। उसके कुंवर का नाम सुमंगल।
इसी नगर के मंत्री को श्येनक नामक एक पुत्र था। पूर्वकृत प्रबल पापकर्मो के उदय का जाने संगम इस श्येनक में एकत्र हुआ। ऐसा विचित्र तथा जुगुप्साप्रेरक शरीर उसे मिला की जो देखे वह हँसी किये बिना रहे नही। राजकुमार सुमंगल इस श्येनक की बहुत मश्करी करता। सब की उपस्थिति में उसका अपमान करता। रोज रोज ही राजकुमार के हाथ का खिलौना बनकर श्येनक बहुत परेशान हो गया, अस्वस्थ हुआ, परंतु कोई उपाय उसे सुझा नही। आखिर एक रात को किसी को जानकारी दिये बिना वसन्तपुरनगर का उसने त्याग किया। दूर के प्रदेश में पहुँचा। तपस्वीओ के परिचय में आया।
वैसे भी वह जन्म से लगातार मित्रो तथा प्रजाननों के तरफ से खुद की होती हुई मश्करी से बहुत दुःखी -दुःखी बना हुआ था। उसमे तपस्विओ का परिचय होते दु:खगर्भित वैराग्य प्रकटा। संन्यास स्वीकारकर तपस्वी बना मासक्षमण के पारणे मासक्षमण का कठोर तप करने लगा।
इस तरफ वसंतपुर का राज्य क्रमशः सुमंगल राजकुमार के हाथ में आया । अब वह महाराजा बन चुका था । प्रेम तथा नीतिपूर्वक प्रजा का पालन करता था ।
एक बार वह श्येनक ढूँढता ढूँढता वसंतपुर आया । प्रजानन उसका सत्कार करने लगे यह तो मंत्रिपुत्र तपस्वी है ऐसा प्रचुर नगर में हो गया ।
तुम मंत्रिपुत्र थे तो सन्यास कैसे ग्रहण किया ? प्रजाननों ने जब पूछा तब श्येनक ने मध्यस्थभावपूर्वक उत्तर दिया , राजकुमार सुमंगल के लिए तब में क्रिड़ा का साधन बना था । अब राजकुमार की वे मश्करिया मेरे वैराग्य का साधन बनी है ।
चर्चा राजा तक पहुंची । राजा के हदृय में शुद्ध पश्चाताप जागा। श्येनक तपस्वी के पास वह पहुंच गया । वंदन करके मासक्षमण के पारणे का लाभ खुद के राजमहल में देने की विनती की । श्येनक ने वह स्वीकारी । वह सुभाषित में कुछ तो सच है कि ऋषि भी जल्दी में राज्यदक्षिण का त्याग नही कर सकते ।
पारणे का दिन आया । तपस्वी राजमहल में पहुंचा । भवितव्यता विपरीत होगी , आज ही राजा का आरोग्य बहुत ख़राब हुआ । पूरा राजपरिवार राजा की सेवा में तल्लीन था । किसी ने तपस्वी की तरफ ध्यान नही दिया । पारणा किये बिना वह वापिस लौटा । दूसरा मासक्षमण शुरू कर दिया । एक के घर पारणा न हो तो दूसरे के घर न जाने की उसकी प्रतिज्ञा थी ।
थोड़े दिन हुए । राजा स्वस्थ हुआ । पारणे का दिन आया । दिन व्यतीत हो गया है , इसका भी राजा को ख्याल आया । वह तुरंत तपस्वी के पास पहुंचा । रोती आँखों से क्षमापना की । खुद के आरोग्य की हकीकत कहकर सुनाई । तपस्वी को भी राजा के प्रति स्नेह प्रकटा ।
राजा ने विनंती की : दूसरे मासक्षमण का पारणा मेरे राजमहल में ही करना । श्येनक ने वह स्वीकार की । समय हुआ इसलिए वह पारणे के लिए पहुंचा परन्तु अफ़सोस! आज भी राजा का आरोग्य अचानक बिगड़ गया था । सभी का ध्यान राजा में पिरोया हुआ था । इसलिए तपस्वी का पारणा नही हुआ । तपस्वी का चित्त अंगारे जैसा श्याम बन गया । वह वापिस लौटा । लगातार तीसरे मासक्षमण शुरू किया ।
थोड़ा समय व्यतीत हुआ राजा फिर से स्वस्थ हुआ स्वस्थ होते ही तपस्वी के पारणे की बात राजा को याद आई । वह बैचेन बन गया । तत्क्षण वन में पहुंचा । तपस्वी के चरणों में सिर झुकाकर रोते-रोते उसने माफी मांगी । वापिस पारणे के लिए पधारने की विनंती की । तथा यकीन दिलाया कि अब तो में रोगी बनु या निरोगी रहूँ परन्तु आपका पारणा अवश्य होगा । उसका संपूर्ण प्रबंध आज से ही कर देता हूँ ।
श्येनक ने राजवचन मान्य किया । 30 दिन देखते ही देखते पूर्ण हो गए । पारणे के लिए वह राजमहल पहुंचा । आज भी राजा बीमारी के बिस्तर मे पड़ा हुआ था । यद्यपि राजा ने पारणे का प्रबंध पहले से ही किया हुआ था इसलिए अधिकारियो ने श्येनक को पहचान लिया था फिर भी उन्होंने तपस्वी को पारणा नही करवाया ऊपर से तपस्वी के ऊपर वे सब संशय करने लगे की यह सन्यासी जब जब आता है तब ही राजा का आरोग्य नादुरस्त (ख़राब) होता है इसलिए यह तपस्वी ही निश्चित अपशकुनी है या फिर तांत्रिक है । ऐसा सोचकर उन सबने लड़कियों , पत्थरो , मुट्ठियों से तपस्वी की धुलाई शुरू की काया का एक भी जोड़ ठीक नही रहा । इस समय श्येनक ने नियाणा किया इस भव में मैंने जो तप किया है उसके प्रभाव से आनेवाले भव में सुमंगल राजा का हत्यारा बनु ।
काया वेदना से तड़प रही थी । मन क्लेश से तड़प रहा था । वह मर गया तथा अल्प ऋद्धिवाला व्यंत्ररदेव बना । दूसरी तरफ सुमंगल राजा क्रमशः स्वस्थ हुआ तपस्वी के अपमृत्यु की घटना सुनकर उसे वैराग्य प्रकटा । स्वयं तापसी दीक्षा स्वीकारी । म्रत्यु पाकर वह भी व्यंतरदेव बना । वहा से च्यवन पाकर प्रसेनजित राजा का पुत्र बना । श्रेणिक उसका नाम पड़ा । क्रमशः राजा तथा जिनभक्त बना ।
इसी श्रेणिक राजा की चेलना रानी के पुत्र के रूप में उस श्येनक तपस्वी की आत्मा उत्पन्न हुई । जिसका नाम कोणिक पड़ा । पिछले जन्म के वैर के कारण कोणिक ने खुद के पिता श्रोणिक से हमेशा नफरत की । अंत में पिता को जेल में डाला । उनका राज्य छिना । 100-100 हंटर रोज मरवाये । भूख तथा प्यास में तड़पाया । अपघात के लिए मजबूर किया ।
यह कोणिक मरकर छट्टी नरक में गया ।
संदर्भ ग्रन्थ : श्राध्यदिनकृत्य – व्रत्ति ।