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जिनदास देव का पूर्वजन्म

पहले देवलोक में जिनदास नामक एक सम्यकदृष्टि देवता बसता है उसके पूर्व भव का वृतान्त अत्यन्त बोधप्रद बने ऐसा होने से यहाँ पेश कर रहे है ।
जिनदास के इस द्रष्टान्त में से समता तथा धीरता का हदय स्पर्शी उपदेश ध्वनित हो रहा है
समता तथा धीरता की ऐसी पराकाष्ठा एक श्रावक भी प्राप्त कर सकता है इसका यहाँ दर्शन होता है और वैसा होता है तब मस्तक प्रभु वचन के महत्व की तरफ झुके बिना नही रहता चंपानगरी में जिनदास नामक श्रावक रहता था। कोई गितार्थ गुरु भगवंत का प्रवचन सुनकर ह्रदय द्रवित हो उठा उसने सम्यक्त्व का स्वीकार किया बारह व्रत स्वीकारे। रोज दोनों रोज दोनों टाईम प्रतिक्रमण करने लगा। वे समय निकाल कर सामायिक करता था तथा सामायिक में स्वाध्याय करता था। कभी नयी गाथा करता था तो कभी पुनरावृति करता था।कभी सुनी हुई जिनवाणी के पदार्थो का रटण करता था तो कभी स्तवन वगैरह गाता था। दया से नरम बनी हुई उसकी ह्रदयभूमि में धर्म का बीज शीघ्रता से अंकुरित होने लगा । अब तो वह पर्वतीथी को पौषध करने लगा । कभी रात में पौषध दरम्यान बगीचे में जाकर रात तक के अखण्ड काऊसग्ग भी करने लगा । भय तथा मोह से मन को बचाने की उसकी मेहनत उनके ऐसे काऊसग्ग को उज्वल बना देती थी।
एक बार एक बेल का खसी करण ( पुरुषेंन्द्रिय के अंड का खंडन )उसने देखा । वह तिलमिला गया। कितनी क्रूरता भरी यह हरकत । बेल को इससे कितनी असहनीय वेदना होती है? जैसे नारकी का अनुभव यही पर उसे मिल रहा हो ।
दयालु जिंदास ने बहुत धन देकर बेल को छुड़ाया । इस कारण बेल को उसके ऊपर बहुत भक्ति पैदा हुई। जिन दस इस बेल को घर पर ले जाना नहीं चाहता था परंतु बेल उसके पीछे पीछे फिरता रहा । रत को भी उन्ही के घर के बाहर खड़ा रहने लगा। यह क्रम थोड़े दिनों तक चलता रहा। ऐसी स्थिति में इच्छा नही होने पर भी शेठ ने इस बेल का पालन सुरु किया। वह उसे गास पानी वगेरह रोज देने लगे। बेल की आत्मा लघुकर्मी थी । उसे जिनदास की धर्मपरायणता बहुत पसंद आई।सेठ सामायिक करे तब वह बाहर ही बैठता था तथा सेठ का स्वाध्याय सुनता था। जैसे-जैसे धर्म सुनता गया वैसे वैसे धर्म के प्रति आदर उतन्न होता गया । अब तो उसने रात्रि भोजन भी छोड़ दिया। पर्वतिथि को भी हरि घास भी नही खाता था । सेठ प्रतिक्रमण करते तब दोनों समय वह सेठ के पास में बैठ जाता। रोज सुबह सेठ के पास पच्चक्खाण करता उसके बाद ही घास पानी लेता था।
एक तिर्यच की धर्म के प्रति यह कैसी भव्यतम श्रद्धा है? उसको नमस्कार हो । वह रोज सेठ के दर्शन करता उसके बाद हे प्रभात कार्य की शुरुआत करता। एक बार अष्ठमी की रात को जिन दास ने बगीचे में जाकर काऊसग्ग किया । उसी दिन उसकी कुलटा पत्नीने खुद के जार पुरुष को उसी बगीचे में आने का “call” दिया था।
संकेतानुसार दोनों बगीचे में आ पहुचे । यह कुलटा स्त्री घर के विश्वासु नोकरो के साथ एक लोहे का पलंग लेकर आई। जिससे उस पर क्रिड़ा कर सके । उसे कल्पना ही नही थी की सेठ भी इसी बगीचे में का सग्ग के लिए आये होंगे । उसकी तो धारणा थी की अष्टमी हे इसलिए सेठ ने रात को पौषध किया होगा । हमेशा के क्रम के अनुसार पौषधशाला में ही वे रहने चाहिये। जो पलँग लाया गया था उसके चारों पावो के नीचे लोखंड की नुकीली किले थी। कुलटा ने नोकरो के पास पलंग को किसी मनपसन्द जगह पर रखवा दिया। योगानुयोग पलँग का एक पाँव सेठ के एक पैर के ऊपर ही पड़ गया फिर भी किसीको कुछ पता नही चला। गहरा अँधेरा था ना?
अब, पलँग को स्थिर करने के लिए उसके हर पाँव पर हथोड़े से प्रहार करने में आया। सेठ के पाँव पर पलँग का जो पाँव था उस पर भी प्रहार हो गए। इससे पलंग का बहुत बड़ा खिला सेठ के पाँव को आरपार छेदता हुआ जमीन में घूंस गया। सेठ को प्रचंड वेदना हुई । पाँव लहूलुहान हो गए, मांस का पिंड बाहर निकल आये।
एक तरफ इतनी प्रचंड शरीर की वेदना तथा दूसरी तरफ खुद की प्रिय पत्नी का खुद की नजर के सामने ही व्यभिचार!
इस तरफ यह कुलटा तथा उसका पुरुष सेठ इतने नजदीक थे फिर भी उसे जान नही सके, इतने विषयान्ध बन बैठे । वे दोनों पलंग पर चढ़े तथा यथेच्छ कमचार करने लगे ।
यह दृश्य सेठ ने खुद की आँखों से देखा । असहनीय यह दृश्य था।
इस समय सेठ ने खुद के मन को समत्व तथा एकत्व की भावना की सिख दी की , तू शारीर की वेदनाओं से डर मत क्योंकि वह नाश पाने वाला है । तुं पत्नी के व्यभिचार से उसकी तरफ नफरत भी मत करना क्योंकि विषय सुख की इच्छा से उसके साथ शादी करके तूने ही बड़ी भूल की है ।
सेठ ने समत्व तथा एकत्व दोनों का balance बराबर बनाये रखा । लोहे का पलँग ही विशाल था । अब उसके ऊपर दो मनुष्य चढ़ बैठे अतः सेठ के पांव के ऊपर असहनीय वजन आया । सेठ ने लंबे समय तक वह सहन किया , इससे शेठ का शरीर जर्जरित हो गया । उसी रात को सेठ ने समाधिपूर्वक म्रत्यु को प्राप्त किया । पहले देवलोक में जीनदास देव के रूप में वे उत्पन्न हुए ।

– आधारग्रंथ : मुनिपति चरित्र ।

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