कितने ही चौबीसीओ पहले इस भरतक्षेत्र में ‘उदायी’ नामक तीर्थंकर हुये। उनके निर्वाण -कल्याणक का महोत्सव देखकर एक प्रत्येक बुद्ध की आत्मा को वही जातिस्मरण ज्ञान हो गया। दीक्षा स्वीकारी। पर्षदा के सामने देशना देने लगे।
इस प्रत्येकबुद्ध मुनि की देशना में एक ‘ईश्वर’ नामक भारेकर्मी जीव आया। इस समय प्रथ्वीकाय के जीवों का वर्णन देशना में हो रहा था। ईश्वर ने सुना । उसका मन विद्रोह पुकार उठा , उसे लगा:ये सब असंभव बाते हैं ।’पृथ्वी वगेरह में जीव हैं तथा उनकी हिंसा भी छोड़नी चाहिए ।’ ऐसा कौन माने?
आप बोलते हो उसका कोई सबूत दोगे ? ईश्वर ने पूछा.
एक काम कर, तू गणधर भगवंत के पास जा। वे तुझें ज्यादा अच्छी तरह से समझायेंगे। प्रत्येक बुद्ध मुनि ईश्वर का पूर्वग्रह से भरा हुआ स्वभाव देखकर कहा।
वह गणधर भगवंत के पास पहुँचा । मोहगर्भित वैराग्य से वह प्रेरित हुआ। गणधर भगवंत की पूण्यप्रतिभा से प्रभावित हुआ, उनके पास दीक्षा ली।
एक बार गणधर भगवंत ने भी पर्षदा के समक्ष पृथ्वी – पानी वगैरह में जीव हैं ऐसा प्रतिपादित किया। ईश्वर यह सुनकर धुँआ-धुँआ हो गया। वास्तविक दलील देकर गणधर भगवंत ने उसके चित्त का समाधान करने का प्रयास किया परंतु वह न माना तो न ही माना।
ऐसी वेतुकी दलील पकड़कर वह बैठ गया कि साधु पृथ्वी तथा पानी की हिंसा नही करते तो आहार किस तरह करते हैं तथा जलपान किसलिये करते हैं?
गणधर भगवंत के प्रति अभाव धारण करके उनसे वह अलग हुआ। रास्ते में खुद के इस अकार्य के लिए पश्चाताप भी हुआ तथा प्रायश्चित की इच्छा भी जागी ।
प्रत्येक बुद्धमुनि के पास वह वापिस उपस्थित हुआ। वहाँ पर भी उस दिन व्याख्यान में पृथ्वी -पानी में जीव है इसी बात का स्वाभाविक प्रतिपादन हुआ । यह बात वापिस सुनते ही ईश्वर का क्रोध भडक उठा। अब तीव्र मिथ्यात्व का उदय हुआ था इसलिये दुधर्यान अपनी सभी मर्यादाये लाँघ गया।
उसने सोचा यह प्रत्येक बुद्धमुनि तथा गणधर भगवंत दोनों ऐसा उपदेश देते है जो स्वत: विरोधी है उन दोनों को छोड़कर मैं ऐसा धर्म स्थापुगा जिसमे पृथ्वी-पानी में जीवत्व मानने में न आया हो तथा लोग सुखी होकर आचरण कर सके ऐसा सरल आचार बनाया हो।
इस तरह , जिनमत का उच्छेद करने की तथा पाखंड की स्थापना करने की कातिल परिणति तक वह पहुँचा । वहाँ पर ही उसके सीर पर बिजली पड़ी ।तड़पकर वह मर गया। सातवी नरक में पहुँचा।वहाँ से निकलकर मछली बना। वापिस सातवी नरक में पटका गया। उसके बाद कितना ही भवभ्रमण करके अंत में मनुष्यभव पाया। गोशाला बना।
ईश्वर के जन्म में सम्यक्त्व की , ज्ञान की तथा सद्गुरु की जो दुश्मनाहट की उनके संस्कार वापिस जाग्रत हुए । यहाँ भी प्रभु महावीरदेव का विरोधी बना। उन्मार्ग की स्थापना की । अंनत संसार बढाया।
-संदर्भ ग्रन्थ:त्रिषष्टि. चरित्र-१०पर्व