दक्षिण के एक छोटे से कस्बे में था। वहाँ की धर्म आराधना प्रभु भक्ति देखकर हदय उल्लसित हो गया। क्या उन लोगो के भाव थे। क्या युवा प्रभु भक्ति में मग्न थे। पाठशाला में युवा ब्रिगेट भविष्य का सिंचन कर रही थी। वही पर सुचित नाम के युवा से परिचय हुआ। बातो में श्रावकत्व की खुमारी उसमे नज़र आ रही थी। हर जगह पाप भिरुता दिख रही थी। प्रभु के शासन पर अविरल राग नज़र आता था। शासन के लिए जीना और मरना इस तरह के भावों में रहता था।
25 वर्ष के उस नौजवान के जीवन की परतो को जब जांचा, तो मै थम गया। एक तरफ शासन समर्पण की पराकाष्ठा बताता था तो दूसरी तरफ जैनत्व के लक्षणों को ही तोड़ दिया था। जहाँ बच्चो को कर्म की थेरेपी समझता था, कंदमूल में अनंत जीवो का भक्षण होता है, यह नरक का नेशनल हाईवे है, वह इसे त्याग करने का उपयोग देता तो दूसरी तरफ खुद इसका भक्षण करता था। और अपनी प्रियतमा को भी खाने में प्रेरित करता था।
जब यह बात सुनी तो आँखो में आंसू थे ऐसे युवाओ के हाथ में हमारा भविष्य सुरक्षित रहेगा क्या??
जो व्यक्ति खुद पर अनुशाशन नही कर सकता वह दूसरों पर कैसे शाशन चला सकता है?
जो व्यक्ति अपने आचरण को नही सुधार पायेगा वह दूसरों को महान बनाने का उपदेश कैसे उच्चारण करेगा?। साथियो ऐसी धर्म की झूठी देखा देखी मत करो जिससे आप स्वयं अपनी आत्मा को ही ठग रहे है।
हमेशा उपदेश देने के पहले खुद के जीवन में आचरण लाओ तभी उपदेश सार्थक होगा।।
उसके दोहरे भापदण्डो की बलि प्रियतमा चडी। जिसने अपने घर पर कंदमूल नही खाया। बस उस लड़के के साथ सगाई होने के बाद कंदमूल खाने की स्वीकृति दे दी। माह में 10 दिन खाना प्रारम्भ कर दिया है।
बस यहाँ से शुरुवात हो गयी है। आगे कभी उसके कदम हुक्काबार और बियरबार के उधर न चले जाये।
क्योंकि एक दुषन अनेक दुषनो को लाता है।।
सबसे पहले बस कंदमूल अभक्ष का त्याग करके जैन बने। फिर दुसरो को उद्धबोधन दे ताकी हमारी वाणी औरो को प्रभावित करे। और आत्मकल्याण हो पाए।।