हे परमात्मा,
मेरे समाने एक वृक्ष है जिसकी डाल पर कोई पक्षी आकर के बैठता है और फटाक करके उड जाता है। इतनी देर मे मेरी दृष्टि सामने आये हुए एक तालाब पर तडी। उस तालाब मे भैंस आ कर के गिरी। पानी मे बैठी वो पानी मे गिरी वो बहार निकलने का नाम ही नही। मेरी दृष्टि पक्षी पर गई वहा से मेरी दृष्टि हटी और भैस पर गई वहाँ से दृष्टि मनोदशा पर गई।
और फिर तुलनात्मक प्रकिया शुरू होगई है। मेरा मन किसके जैसा है? पक्षी जैसा या भैस जैसा? मेने इस पर चिन्तन करना शुरू किया तो ढेर सारी विचिनता मेरे अंदर नजर आगई।
मेरे मन मे कोई शुभ विचार आता है। आने के साथ ही वह उड करके भाग जाता है। यहा तो ऐसा लगता है कि मेरा मन सही मे पक्षी जैसा है। शुभ विचार आते है और उड जाते है।
पर जब इससे आगे बढता हूँ मुझे मेरा मन पेड कम और पानी गड्ढे जैसा ज्यादा लगता है। ओर जब इसमे कुविचार का एक विचार भी आ जाता है फिर कुविचार रूपी भैस मन रूपी तलाब मे गिरी वो गिरी फिर वो बाहर निकलने का नाम ही नही लेता है। अरे फिर तो कुविचार धारा बद्ध आते है। कुविकल्पो की एक एसी धारा रची जाती है कि ये कुतरंग हटने का नाम ही नही लेता है। यह तो मन के साथ फोविकोल की तरह चिपक जाती है।
कौन कहता है कि मन अस्थिर है अरे मेरे मन के अन्दर एक बार कुविचार आ जाते है तो घण्टो तक मन उसमे ही रहता है। मै उन कुविचार मे इतना मग्न हो जाता हूँ की समय का भान ही भूल जाता है।
और शुभ विचार तो आने के साथ ही उड जाते है। यह तो बिल्कुल पक्षी की तरह आते है और एक कर उड जाते है। प्रभु ऐसा तो कुछ करो कि यह शुभ विचार आते ही पिंजरे मे कैद हो जाए। बस ऐसी कृपा सागर, कृपा कर दो।
बस प्रभु आपसे प्रार्थना इतनी ही करूंगा कि मेरे मन मे कुविचार भैस की तरह पडे रहते है। परंतु मेरे मन को उस दालदार वृक्ष की तरह बना दो की यहा शुभ विचार रूपी पक्षी अपने घोंसले बना के यही बसे रहे।