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मेतारज मुनि का पूर्व जन्म

क्रोच पक्षी की रक्षा के लिए जिसने प्राणांत उपसर्ग के अंत में केवलज्ञान पाकर जो मोक्ष में पधारे उन्ही मेतारज मुनि का यहाँ संस्मरण करते है।
उसी भव में मोक्ष में जानेवाले इस महापुरुष को नीच कुल में क्यों जन्म लेना पड़ा यह यदि जानना हो तो उनके पूर्वजन्म पर नजर डालनी पड़ेगी ।
पिछले भव में वे उज्जयिनी नगर में पुरोहित थे । उन्होंने जब नवयौवन को प्राप्त किया वही उनकी शरारते बेकाबू बन गई क्योंकि शहर के राजकुमार के साथ उनकी मित्रता थी। उज्जयिनी में उस समय मुनिचंद्र नामक राजा राज्य संभालते थे।
यह मुनिचंद्र यानि चद्रावंतसक राजा का पाँचवा नंबर का पुत्र । मुनिचंद्र के बड़े भाई का नाम सागरचंद्र था। सागरचंद्र को पिताजी ने साकेतपुर का विशालराज्य सौपा था परंतु राज्य के लिए सौतेली माताजी से कलह की वजह से वैराग्य पाकर उन्होंने दीक्षा ले ली। दीक्षा लेने के पहले राज्य के सिहांसन पर खुद की सौतेली माता के पुत्र गुणचंद्र का खुद ही राज्याभिषेक किया।
दीक्षा लेकर सागरचंद्रमुनि उत्तम सयंम पालने लगे। एक बार उन्हें उज्जयिनी नगरी से विहार करके आनेवाली साधुओं की मंडली मिली । इन साधुओं ने शिकायत की कि हे भगवंत!वहाँ तो आपका भतीजा , उसी तरह उसका मित्र पुरोहितपुत्र साधुओं को परेशान कर रहे हैं । गोचरी मैं भी उपद्रव तथा वसति में भी उपद्रव । स्वाध्याय में भी विक्षेप तथा विहार में भी विक्षेप । वे दोनों महामिथ्यात्वि बन गए है और साधुओं के विरोधी बन गए हैं। यौवन तथा सत्ता से उन्मत बनकर अपनी मार्जिनुसार शासन को मलिन कर रहे है । राजा मुनिचंद्र भी उनको रोक नही सकते , आप बहुत महान हो ! सुझेशु की बहुना ?
ठीक है ,में उनकी मनमानी ठीक करता हु ।
सागरचंद्र मुनि ने आश्वासन दिया । गुरु की आज्ञा लेकर वे उज्जयिनी नगरी में पधारे । राजमहल में पहुंचे तथा राजपुत्र व पुरिहित पुत्र कहा है ? पूछने लगे । चौकीदार ने जवाब दिया : इस बगीचे में क्रिड़ा कर रहे है । आप वहां मत जाओ । वे लोग साधुओं को बहुत सताते है ।
सागरचंद्र मुनि सीधे उन दोनो के पास पहुंचे तथा ऊँची आवाज़ में धर्मलाभ कहा । वे दोनों आश्चर्यचकित हो गए । आपस में विचार करने लगे की आज बहुत समय के बाद साधु मिले ह तो चलो आज उनके पास जरूर से नाच – गान कराये। दोनों ने सागरचंद्र मुनि का एक एक हाथ पकड़ा तथा उन्हें राजमहल में ऊपर के माले पर ले गए ।
मुनिराज ने भी उनको जैसा करना था , वैसा करने दिया । ऊपर जाकर पहले दरवाजा बंद किया । उनके बाद उन दुष्टो ने मुनि को नाचने की आज्ञा दी ‘चल’ नाचना चालू कर , नही तो चाबुक की मर पड़ेगी …. ‘
“तुम दोनों वीणा तथा ढोल बजाओ और उनके ताल पर में नाच करूँ “सागरचंद्र मुनि ने कहा ।
हमें वाद्य तो बजाने नही आते ह वे दोनों उन्मत्त होकर बोले ।
तो फिर मेरे साथ मल्लयुद्ध करोगे ? सागरचंद्र मुनि ने प्रस्ताव रखा । हाँ , क्यों नही ? जरूर करेंगे । उन उन्मत्तोने विचाद किया कि मल्लयुद्ध द्वारा इस साधु को ज़्यादा परेशान कर सकेंगे आने वाले साधु की क्या हस्ती ह ? उनको कहा पता था ? उन दोनों के सामने अकेले सागरचंद्र मुनि ने मल्लयुद्ध किया देखते ही देखते दोनों हाँफने लगे , सागरचंद्र मुनि ने संसारी अवस्था में मल्ल कला का गहरा अभ्यास किया था । उनकी मल्ल युद्ध की प्रवीणता के सामने के सामने ये दोनों तो बच्चे जैसे लगने लगे । अवसर पाकर मुनिराज ने इन दोनों के अंग ऐसे मरोड़ दिए की उनके शरीर की हड्डियों में से संधि छूटी पड़ गयी । दोनों जमीन पर ढेर बनकर गिर गए तथा वेदना से कराहते हुए चित्कार करने लगे सागरचंद्र मुनि उन्हें उसी दशा में छोड़कर राजमहल में से बाहर निकल गए । बगीचे में जाकर कॉसग्ग में एकाग्र बन गए ।
इस तरफ उन दोनों की चीखें सुनकर राजा उनके पास पहुंच गया । देखा की , मल्लकला से उन दोनों के अस्थिबंध स्वतंत्र पद गये थे । जाँच करने पर राजा को पता चला की कोई साधु राजभवन में आये थे । उनके यह जादू होना चाहिए । राजा खुद उन्हें ढूँढने निकले । ढूँढते – ढूँढते बगीचे में आये वहाँ खुद के बड़े भाई मुनिवर को देखा । देखते ही चरणों में गिर पड़े । आजिजी की , है स्वमी ! आपके जैसे महापुरुष दुसरो को कष्ट पहुचाये यह योग्य नही है ।
तू चंद्रावत्तसंक राजा का पुत्र है फिर भी तेरे इन साधु द्वेषी पुत्रो को क्यों नही रोकता ? इस अन्याय ? सागरचंद्रमुनि ने राजा से शिकायत की ।
भगवंत , उनके कर्म का फल उन्होंने आज बराबर भोगा है । अब , आप तो वैसे भी उनके पिता के स्थान पर हो । आपके सिवाय उनकी शरीर संधि को पुनः स्थापित करे ऐसा कोई नही है । इसलिए कृपा करके उनको बचाओ ।
तो उनको मेरे सामने उपस्थित करो! वैसा ही हुआ । कराहते हुए उन दोनों को सागरचंद्र मुनि ने कहा कि दीक्षा लेने की मेरी पहली शर्त है । यह कबूल करो तो तुमको जीवन दान मिलेगा । दोनों ने शर्त का स्वीकार किया । उनके बाद मल्लकला में प्रवीण मुनिराज ने दोनों को शरीर संधि को फिर से जोड़ दिया । वे दोनों जैसे थे वैसे स्वस्थ बन गए ।
शर्त के अनुसार उन्हें वाही दीक्षा दी गयी । दोनों ने सच में ली भी । वे दोनों सागरचंद्र मुनि के शिष्य बने । अच्छी तरह से पंचाचार का पालन किया । दोनों में से जो पुरोहित पुत्र थे , उस मुनिवर ने सयंम जीवन में भी कुल का अभीमान नही छोड़ा जाती का बहुत गर्व किया । इसलिए उसने नीछ गोत्र कर्म का बंध किया ।
बिच में देव का भव ग्रहण करके यही मुनि मेतारज कुमार के रूप में जन्मे , चांडाल पुत्र हुए उसके बाद का उनका सफर बहुत ही रोमांचक है जिसे हम जानते है ।

– आधारसूत्र : उपदेशमाला दोघट्टी वृत्ति।

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