आपका कृत्य, संतानों के लिए आदर्श है:
यहां धर्म स्थान में, प्रवचन में आओ तब आपके माता-पिता को भी साथ में लाएंगे? उनका हाथ तुम स्वयं ही पकड़ो यह अच्छा है कि तुम्हारा आदमी पकड़े वह अच्छा।
आपके घर की महिलाएं माता का हाथ पकड़े। आपकी पत्नी को यह काम सौंपो। आप पिताजी का हाथ पकड़कर लाओ। व्यख्यान में आओ की जिनालय में आओ तब उनका हाथ पकड़कर, उनके अनुकूल गति-रीति से उन्हें ले आओ। प्रभु के दर्शन-पूजन साथ रहकर कराओ। उनसे भंडार में रुपए डलवाओ। गुरु भगवंत के पास आओ तब उन्हें आगे करके स्वयं पीछे रहो। उन्हें रुपए देकर गुरुपूजन-ज्ञानपूजन करवाओ, फिर आप करो। वे वासक्षेप कराएं फिर आप करवाओ। यह सब विनय है।
आज तो आप हमारा पूजन करके वासक्षेप कराओ, फिर आपकी श्रीमतीजी को अथवा पुत्र-पुत्री को बुलाओ। किंतु माता-पिता याद आए? वे सबसे बाद में क्यों? जैसे माता-पिता अर्थात घर के मेहमान! और ऐसा होता तो भी अच्छा होता। क्योंकि मेहमान के हाथ से तो धर्मकार्य पहले कराना चाहिए। इसीलिए सच देखने जाए तो आपके घर में आपके माता-पिता का स्थान मेहमान से भी नीचे आप लोगों ने बना रखा है। यह अनुचित आचरण है। यह उनका अविनय है। इसे दूर करके आ आप विनय को अपनाएं! जिनालय में, उपाश्रय में, धर्मस्थान में अथवा व्याख्यान में इस प्रकार का विनय करने लगे तो घर में परेशानी नहीं आएगी। आप अपने माता-पिता का इस प्रकार विनय करने लगे तो यह देखकर सबको ख्याल आ जाएगा कि विनय कैसे किया जाता है? आपको विनय करते देखेंगे तो आपके पुत्र-पुत्री को भी उनके दादा-दादी की सेवा करने का मन होगा। इस सेवा से उनका भविष्य निर्माण होगा तो ही वह आगे चलकर आपको भी समाधि देंगे। घर में आपको विनय करते देखेंगे तो हमारे साधुओं को पता चलेगा कि अब आप विनयशील बन गए हैं।
सभा: वह कैसे?
आप घर आए साधु-साध्वीजी को उनके हाथ से बोहराने की शुरुआत करोगे। आज तो कह देते हो- ‘रहने दो, आपसे नहीं होगा।’ मूल में भावना में कमी हो तो विनय नहीं होगा।
जैसे आप अपने पुत्र-पुत्री को हाथ पकड़कर पूजा कराने ले जाते हो, वैसे ही वृद्ध माता-पिता को हाथ का सहारा देकर क्या नहीं ले जा सकते? मुझसे कह दो कि साहब आज तक जो हो गया सो हो गया। वह भूल अब नहीं होगी। इस पाप का प्रायश्चित करने के लिए आज से माता-पिता को संतुष्ट करेंगे। उनके धर्म के सभी मनोरथ पूर्ण करेंगे। उनकी पूरी सेवा-भक्ति करेंगे।’
आप भाई-बहन अथवा पति-पत्नी मिलकर माता-पिता की सेवा करते हो, सेवा का लाभ के लिए आपमें होड़ लगी हो, उनका आदेश अथवा इच्छा सिर-आंखों पर लेकर अमल करने की लगन हो तो क्या आप की संताने जड़ है कि उन पर कोई असर नहीं होगा? वह भी आप की ही संतान हैं न? आपके विनय, औचित्यपूर्ण व्यवहार का असर उन पर भी अवश्य पड़ेगा। वे भी सेवा में जुड़ेंगे। होड़ में शामिल होंगे। सेवा करना उन्हें भाररूप नहीं लगेगा। वे उत्साह से सेवा करेंगे। आप मात्र उन पर सब डाल दो तो वह बचने की कोशिश करेंगे- ऐसा हो सकता है, किंतु आप स्वयं सेवा-सुश्रुषा का लाभ लेते हो तो वह पीछे नहीं रहेंगे?
जिसे माता-पिता उपकारी, सौभाग्य, सिरछत्र, अहोभाग्य लगे, उसे ही यह सब बातें रुचिकर लगेंगी और पसंद आएंगी। जिसे माता-पिता बोझ, गले पड़े हुए लगे और उन्हें निभाना मजबूरी लगे, उसे इनमें से एक भी बात रुचिकर नहीं लगेगी। आपको तो आपके माता-पिता बोझ, गले पड़े हुए और निभाने की मजबूरी नहीं लगते न? विचारीएगा!
शास्त्रकार कहते हैं कि माता-पिता निभाने की वस्तु नहीं है, बल्कि उनकी सेवा, भक्ति, शुश्रूषा एवं आज्ञ पालन करके भवसागर करने का साधन है। आज तो कईयों के दिन भर गए है। वह तो हमारे भगवान के लिए भी निर्वाह फंड देते हैं। भगवान क्या निभाने की चीज है या फिर भक्ति करके तर जाने योग्य तत्व है?
माता-पिता की भक्ति के कारण कषायों का क्षयोपशम भी ऐसा होगा कि उत्तम विनय गुण सिद्ध हो जाएंगे। इनमें से श्रंखला रूप में खींचकर आनेवाले अनेक गुण आत्मसात हो जाएंगे। आपके पास गुणों का उत्तम भंडार हो जाएगा। इस पूंजी से देशविरति एवं सर्वविरती स्वरूप धर्मरत्न आपके हाथ में आ जाएंगे। यह सब व्यर्थ नहीं है। इस प्रकार संसार में रहकर माता-पिता का विनय किया होगा तो दीक्षा लेने के बाद बड़ों का उचित भी नहीं हो सकेगा। इस विनय का अभ्यास साधना जीवन में अंत तक काम आएगा।
जिसने जीवन में माता-पिता का विनय नहीं किया, वह यहां आकर गुरु आदि बड़ों का भी विनय कहां से करनेवाला है।
इस विनय व औचित्य को आत्मसात करने के लिए आपको आपकी अनेक वैषयिक वृत्तियों को नियंत्रित करना होगा। अनेकशः कषायों को अंकुश में करना होगा। ऐसा यदि आप करेंगे तो यह गुण आप प्राप्त कर पाएंगे।
माता-पिता का संबंध जन्म से है। इसीलिए यहां प्रथम-द्वितीय औचित्य रूप माता एवं पिता संबंधी बातें ग्रंथकारश्रीजी ने बताई है।