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औचित्य माता पिता का – भाग 18

रानी व दासी:

श्री कृष्ण महाराजा का संयम प्रेम आत्मा के प्रत्येक अंश में समाहित था। अविरति के प्रगाढ़ उदय के कारण वह स्वयं स्वीकार नहीं कर सके थे। फिर भी अपनी पत्नियों व संतानो आदि को संयम मार्ग पर ले जाने का उन्होंने भागीरथ पुरुषार्थ किया था। उनकी सभी पुत्रियों को उन्होंने परमात्मा श्री नेमिनाथ प्रभु के पास प्रव्रजीत कर साध्वी बनाया और इस प्रकार उन्हें ‘सच्ची रानी’ बनाया था।

उनकी पुत्री कि जब विवाह की उम्र होती तो माता पुत्रियों को पिता के समक्ष भेजती थी ताकि उन्हें पुत्रियां के लिए सुयोग्य वर तलाश करने का विचार आए। पिता पुत्री से प्रेम से पूछते-
‘बेटा! तुझे रानी बना है कि दासी?’ ‘पुत्र का उत्तर होता- ‘रानी बनना है!’ तो जाओ परमात्मा के श्री नेमिनाथ प्रभु के मार्ग पर, वहां जाकर तुम रानी बन पाओगी।’ ऐसा कह कर उन्हें वहां भेजते और वैराग्य दिलाकर प्रव्रजीत करते। एक रानी की ऐसी भावना थी कि उसकी पुत्री दीक्षा न ले और घर-संसार बसाए। इसीलिए उसने अपनी पुत्री को सिखा-पढ़ा कर भेजा। पिताजी प्रश्न पूछेंगे कि ‘तुझे रानी बना है कि दासी!’ तो तू जवाब देना कि -‘मुझे दासी बनना है।’

पुत्री ने माता के सिखाए अनुसार पिता के समक्ष बोल दिया। श्रीकृष्ण महाराजा को पुत्री के वचन सुनकर आघात लगा। विचार में पड़ गए कि मेरे घर में यह जहर कैसे घुला? जहर का निवारण करना जरूरी होने से उन्होंने इसका उपाय सोच लिया।
पुत्री का अपने आज्ञाकारी वीरा सालवी के साथ विवाह कर दिया। उससे कहा गया कि पुत्री को दासी की तरह ही रखना है। आपको दासी प्रथा मालूम है कि नहीं यह मुझे नहीं पता। लेकिन इस प्रथा का भी एक जमाना था। दासी के तौर पर रखी जाने वाली स्त्रियों पर भारी अत्याचार किए जाते थे। हंटर हाथ में रख कर उनसे काम कराया जाता था। जरा भी भूल हुई तो उन पर हंटर चलाते थे।

वीरा सालवी ने अपने स्वामी श्रीकृष्ण महाराजा का आदेश स्वीकार करके उनकी पुत्री से दासी की तरह काम लेना शुरू किया। राजकुल की राजकुमारी को थोड़ासा भी कष्ट सहन करने की आदत नहीं थी और यहां तो उससे सख्त काम लिया जाता था। कुछ दिन मैं वह बहुत तंग आ गई। पिता के पास आई। कहां- ‘पिताजी! मुझे रानी बनना है।’ पिता को कहा उसे दासी बनाकर रखना था? पुत्री को भूल का आभास कराना था, वह उसे हो गया था। इसलिए इस पुत्री को भी उन्होंने रानी की तरह जीने के लिए प्रभु श्री नेमिनाथ की शरण में भेज दिया। वह भी अन्य भागिनियो की तरह साध्वी बनकर रानी जैसा जीवन जीने लगी और अपनी आत्मा का कल्याण कर गई।

आप भी पुत्र-पुत्रियों के माता-पिता होंगे ही? तो आपके पुत्र-पुत्रियों के लिए क्या इच्छा है यह कहो? आपकी पुत्री रानी बने इसमें आप राजी है कि किसी की दासी बने इसमें आप राजी?
सभा: कोई कोड़े बरसाए तो पता चले।

किसी को कोड़े पड़वाने की जरूरत नहीं है। रोज कोड़े पड़ते ही है। रोज मार खाते हो फिर भी माल खाने का दिखावा करते हो। इन महिलाओं को कैसी और कितनी तकलीफ है यह तो कहो!

कल तक जिन्हें माता-पिता के रूप में मानना-संबोधित करना था, उन्हें छोड़कर पराए माता-पिता को अपने माता-पिता के रूप में मानना-संबोधित करना पड़ता है। कल तक जिन भाई-बहन आदि परिवारजनो-संबंधियों को अपना मानकर व्यवहार करती थी, उन्हें छोड़कर अब पराये भाई-बहनों आदी परिवारजनों-संबंधियों को अपना मानकर व्यवहार करना है; कल जिस घर में जन्म लिया, खेले और छोटे से बड़े हुए, उसी घर को छोड़कर नए घर में जाकर नए लोगों के साथ नई जिंदगी जीना! जरा मन को मान लो, वैराग्य और मन को मोड़ लो तो कैसा उत्तम स्वाधिन संयमि जीवन जी सकती है? परंतु आपके यहां भी कहा जाता है न-

‘लक्कड़ का लड्डू जो खाए सो पछताए, जो नहीं खाए सो भी पछताए।’

औचित्य माता पिता का – भाग 17
September 17, 2018
औचित्य माता पिता का – भाग 19
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