प्रभु का धर्म हमे मिला है पर हमारी वृत्ति बना है या नही? अर्जुन माली रोज 7-7 हत्या करता था। जैसे ही धर्म जीवन मे आया कि उसकी वृत्ति बदल गयी। परिणाम आया एक हत्यारा प्रभु के चरणो मे सयंम स्वीकार करके आत्मा का कल्याण कर गया।
हम लोग क्या कर रहे है? आज हम धर्म दिल से करते है? या प्रौफेशनल बनकर के करते है? हमारा धर्म वह हमारी life का पार्ट है? या फिर समय के साथ होनेवाली सिर्फ क्रिया है?
आज चातुर्मास चतुर्दशी को पूर्व जी भहार होटल मे जाकर आते है और फिर बेसब्री से सम्वत्सरी का इंतजार करते है। सम्वत्सरी हो जाए तो हम होटल जाए। पर इस तरह का आपका वर्तन कभी भी आत्म हितकार नही है। रोज बिसलेरी का पानी पीने वाला कभी गटर का पानी पियेगा? तो फिर एक श्रावक कैसे परमात्मा की आज्ञा स्वीकार कर होटल जा सकता है? उसके लिए होटल गटर जैसी है। वहाँ फिर आप कभी भी जाओ कर्म बंध तो एक जैसा है।
श्रावक का जीवन हर समय यही विचार करता है कि प्रभु की आज्ञा का उल्लंघन नही होना चाहिए । मेरी आत्मा का पतन नही होना चाहिए। यह विचारो मे उसे कभी भी होटल, पिज्जा, बर्गर याद नही आ सकते है। और याद आ भी जाये तो समझाना चाहिए की अभी हम जन्म से जैन बने है, कर्म से जैन बनना बाकी है। और हम जिस दिन कर्म से जैन बन जाएगें उस दिन से हमारा प्रयाण सिद्धशिला की ओर प्रारम्भ हो जाएगा।
तो चलो अब
तुम तुम्हारे विचारो को निखारो वो तुम्हारे शब्द बनेंगे।
तुम तुम्हारे शब्दो को निखारो वो तुम्हारी आदत बनेंगे।
तुम तुम्हारी आदत को निखारो वो तुम्हारे कर्म बनेंगे।
तुम तुम्हारे कर्मो को निखारो वो तुम्हारी नियती बनेंगी।
और
जिस दिन धर्म आपकी नियती बन गया उस दिन समझ लेना आपका बेडा पार है।।