दीक्षा लेने के बाद पार्श्वप्रभु भारत की धरा को पावन कर रहे थे। अब तक प्रभु को केवलज्ञान की प्राप्ति नहीं हुयी थी। एक बार परमात्मा राजपुरी नगरी की सीमा में पधारे। नगर का राजा ईश्वर घुडसवारी करता हुआ वहाँ से निकला। राजा के साथ राजा का परिवार भी था ।
राजा के साथ चलते हुये बाणार्जुन नामक एक भाट की नजर पार्श्वप्रभु पर पडी। प्रभु काऊसग्ग कर रहे थे। भक्ति से भीगे हुये उसने प्रभु की स्तवना की।
राजा का ध्यान भी प्रभु की तरफ आकर्षित हुआ।अहा! ये तो अश्वसेन राजा के पुत्र पार्श्वनाथ कुमार है। महान त्याग किया आपने! राजा का दिल द्रवित हो गया। राजा तत्काल मूर्छित हो गया। शीतल उपचारो से कितने समय बाद जागा। उसे जातिस्मरण ज्ञान प्रगटा। पिछले जन्म दिखे। इससे राजा को पार्श्वकुमार का तीर्थंकर तरीके के स्वरुप का तात्विक अनुमान लगा। अब राजा का मन शांत नहीं रहता है। प्रभु के चरणों में सब कुछ न्योच्छावर करने के लिये वह तैयार हो गया।
उसने तत्काल प्रभु के सामने संगीत का नाटारंभ शुरू करवाया। इस तरह प्रभू की भक्ति की। प्रभु जब इस जगह से विहार कर गए तब उसी जगह पर राजा ने गगनचुम्बी मंदिर बँधवाया और उसमें पार्श्वप्रभु की रत्नमय प्रतिमा प्रतिष्ठित की । खुद ने बांधे हुए इस मंदिर का नाम ‘कुर्कुटेश्वर तीर्थ ‘स्थापा । समय के प्रवाह में यह तीर्थ तथा तीर्थ के नायक *’कुर्कुटेश्वर पार्श्वनाथ’* के नाम से विख्यात हुए ।
ईश्वर राजा का मंत्री इन सब घटनाओ से दिदमूढ़ था । उसने राजा को पूछा :राजन! आप बेहोश कैसे हो गए तथा उसके बाद तुम्हारी जिंदगी में ऐसा turning किस तरह से आया ?
मंत्रीश्वर! मुझे जातिस्मरण ज्ञान हुआ था इससे मैं बेहोश हो गया। जातिस्मरण ज्ञान से मैंने पिछले जन्म देखे है।
पूर्व के तीसरे जन्म मे मै पुरोहीत का पुत्र था। मेरा नाम चारुदत्त तथा पिता का नाम दत्*म था। वसांतपुर नगर के हम रहवासी। पापकर्म के उदय से मुझे भयानक कोढ़ रोग उत्पन्न हुआ। वेदना से कराहता हुआ चैन से में सौ भी नही सकता तथा खा भी नही सकता। आकुल -व्याकुल बना हुआ मैंने अपघात करने का निश्चय किया। अपघात करने के लिए गंगा नदी के किनारे पहुँचा।षवहा मुझे गुणसागर नामक जैन मुनि मिले। उन्होंने कषायों की भीषणता का ऐसा असरकारक उपदेश दिया जीससे मैंने अपघात करने का निश्यच बदल दिया । उनके पास सम्यक्यत्व स्वीकार करके जैनमत स्वीकार किया ।
एक बार मैं मंदिर में दर्शन के लिए दाखिल हुआ। वँहा मेरे धर्मदाता गुरु भी हाजिर थे। पुष्कलि नामक श्रावक ने गुरुदेव को पूछा ;भगवंत! रस्सी झरता हुआ कोढ़ी इस तरह से जिनालय में दाखिल हो तो उसको कोई दोष लगे की नही ?
दूर से दर्शन कर उसमें क्या बाधा हैं ? गुरुदेव ने जवाब दिया तथा बोले : रोग व्यक्ति का नही पर उसके कर्म का दोष है। गुरुदेव इसका भविष्य कैसा है ? और भी यह चारुदत्त दुःख पायेगा । मृत्यु पाकर मुर्गा बनेगा। इतना सुनते ही मैं निराश हो गया। रोने लगा। तब गुरुदेव ने सात्वंना दी कि किया हुआ धर्म कभी निष्फल नही जाता इसलिये तू शोकमत कर। तेरे पूर्वकृत धर्म बलवान है। इससे एक बार जरूर मुर्गा बनेगा परंतु उसके बाद राजगृही नगरी में अरविंद नामक राजा के रूप में तू पैदा होगा।
मंत्रीश्वर। यह सब घटना मैने ज्ञानबल से देखी है। इस भव में प्रभु के दर्शन से प्रतिबोध मिला इसलिए मुझे पार्श्वप्रभु से अपार भक्ति जागी है।
पिछले जन्म में मैं मुर्गा था । उसके याद रूप में बाधे हुए इस मंदिर का नाम ‘कुर्कुटेश्वर तीर्थ’ रखता हूँ ।( मध्यप्रदेश के मनासा विस्तार में आज भी कुकडेश्वर नामक गांव है इस स्थान पर वह कुर्कुटेश्वर तीर्थ था ऐसी दंतकथा सुनी जाती है ।)