एक बार की बात है- महाकवि कालिदास जी विक्रमादत्य की आज्ञा लेकर शास्त्रार्थ करने के लिए गए।
रास्ता बडा ही लम्बा था और उनके मन मे शास्त्रो की बाते चल रही थी। कही न कही उन्हे अहं भाव भी आ गया था। पर भयंकर धूप के कारण उन्हे प्यास लगने लगी। घोडे पर सवार कालिदास को दूर दूर तक कुछ दिखाई नही दे रहा था।
फिर दूर एक झोपड़ी दिखाई दी। वहाँ पर जा कर उन्होंने घोडा रोका और आवाज लगाई। अन्दर से एक बालिका आई। कालिदास ने उससे पानी माँगा। बालिका ने पुछा आप कौन?
कालिदास को अहं था और वह टूट गया- मुझ जैसे महापुरुष को यह नही जानती है? मै मेरा नाम नही बता सकता हूँ।
कालिदास ने आप कौन ? का जवाब दिया- मै बलवान हूँ।
बालिका ने जवाब दिया- अन्न और पानी से बलवान तो कुछ भी नही है। यह तो अच्छे से अच्छे शरीर को भी हरा देते है। दुनिया मे बलवान तो यही दोनो है।
बालिका ने पुनः प्रश्न किया- आप कौन है?
कालिदास ने फिर जवाब दिया- मै बटो ही हूँ। जो बिना रूके चलता है। अब मुझे पानी दो बहुत प्यास लगी है।
बालिका ने कहाँ- बिना रूके तो दुनिया मे मात्र सुर्य और चंद्र ही है। आप कैसे?
यह बोलकर बालिका पानी लेकर झोपड़े मे चली गई फिर एक वृद्ध स्त्री आई और उसने पुछा- आप कौन?
कालिदास ने कहा- मै मेहमान
वृद्ध स्त्री ने कहा- मेहमान तो धन और यौवन है। जो आते है और चले जाते है।
कालिदास ने कहा- मै सहनशील
वृद्ध स्त्री ने कहा- सहनशील तो धरती और पेड है। धरती हम सब का भार उठाती है और पेड पत्थर खाकर फल देता है।
कालिदास हताश हो जाते है और अचानक से वृद्ध स्त्री का रूप धारण करती हुई साक्षात् सरस्वती देवी प्रगट होती है और कालिदास से कहती है कि- ” ज्ञान का कभी भी अभिमान मत करना। सरल बनकर आगे बढना” ।।