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एक माँ की व्यथा

एक गाँव में श्री भागवत सप्ताह चल रहा था। भयंकर गर्मी के ताप में भी लोग भागवत सप्ताह को सुनकर ठंडक प्राप्त कर रहे थे।

कथा के तीसरे दिन सुबह का सुत्र पूरा हुआ और श्रेता वर्ग भोजन के लिए अपने -अपने घर गया। कथा मण्डप पुरा खाली था, मात्र एक 60-70 साल की विधवा स्त्री कथा मंडप में बैठी थी।

एक स्वयं सेवक उसके पास गया और बोला की माँ जी अब तो कथा दोपहर में 4 बजे के बाद में है। क्या आपको घर जा कर भोजन नहीं करना है ? माताजी ने सिर उठा कर स्वयं सेवक की ओर देखा और फिर कहाँ की बेटा आज मुझे उपवास है। उस सेवक ने कहा की माजी आज तो कोई भी तिथि त्यौहार या वार नही है तो उपवास आज आपने किस बात के लिए रखा है?? विधवा स्त्री ने कहाँ की आज तो मेरा 31 तारीख का उपवास है।

यह वाक्य सुनते ही वह सेवक जोरदार हस दिया और कहाँ अरे माजी यह 31 तारीख का उपवास कौन से शास्र में लिखा है?? विधवा ने अपनी साड़ी से आँखों को पुछते हुए कहा बेटा यह उपवास कोई भी शास्र में नही लिखा है पर ये मेरे नसीब में लिखा बुआ है।

उस स्वयं सेवक ने कहाँ की आप क्या बोलना चाहते हो?? मुझे कुछ भी समझ नही आ रहा। कथा मण्डप में भूखी बैठी विधवा माँ ने स्पष्टता करते हुए कहाँ बीटा मेरे दो बेटे है। मैंने उनको पड़ा लिखा कर बड़ा किया है। अभी दोनों बेटे मेरे से अलग रहते है। मेरे जिम्मेदारी दोनों ने बराबर करके बाँट ली है। मैं 15 दिन छोटे बेटे के यहाँ तो 15 दिन बड़े बेटे के यहाँ खाना खाती हूं। परन्तु जिस माह 31 दिन होंते है उसमें अंतिम दिन उपवास करती हूँ।

हम जब छोटे थे तब एक स्तन से दूध कराती माता के दूसरे स्तन पर बहुत लात मारी है। हमारी लात को खाने के बाद भी उसने हमारा पेट भरा है। तो फिर आज हम उनकी इस उम्र में भोजन से उनका पेट और प्रेम से उनका हृदय भर देने की हमारी जिम्मेदारी को हम याद रखे।

माँ बाप के आशीषों को ईश्वर भी काट नही सकता है
क्योंकि उनके आशीषों के हज़ारों हाथ होते है

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