सामान्यतः पुण्यबंध के दो प्रकार है- एक है पापानुबंधी पुण्य अर्थात पुण्य के फल की इच्छा से निदानपूर्वक किया जानेवाला पुण्य और दूसरा है पुण्यानुबंधी पुण्य अर्थात निष्काम भाव से मात्र स्व-पर के उपकार के लक्ष्य से किया जानेवाला पुण्य।
इन दोनों प्रकार के पुण्य में प्रथम पुण्य सर्वथा हेय है, क्योंकि उसके द्वारा बाह्य सुख-समृद्धि में जीव को तीव्र राग और आसक्ति उत्पन्न होती है, और उसके पाप की परंपरा का सर्जन होता है। इसके फल में भवभ्रमण होता है। जबकि दूसरे प्रकार का पुण्यानुबंधी पुण्य उपादेय है क्योंकि उसके द्वारा मिलती बाह्य सुख-सामग्री जीव को उसमें आसक्त नहीं बनाती, परंतु अपना फल देकर जीव को सद्गुरु आदि के उत्तम आलंबन प्राप्त करवाकर मोक्ष साधना में सहायक बनती है इसीलिए वह उपादेय है।
पूर्व में विचार किए गए पुण्यबंध के हेतुरूप नौ प्रकार के पुण्य और ‘कर्मग्रंथ’ वगैरह में बताए गए पूण्य की 42 प्रकृतियो में से तीर्थंकर नाम कर्म मनुष्य जाति, पंचेन्द्रिय जाती आदि पुण्य प्रकृतियाँ सर्वथा उपादेय ही है क्योंकि उनके बिना पाप-नाशक और मोक्ष साधक उत्तम सामग्री नहीं मिल सकती। इस सामग्री के अभाव में मोक्षमार्ग की साधना भी नहीं हो सकती और इस साधना के बिना सिद्धि तो कैसे हो सकती है?